मथुरा।।
सनातन धर्म के सभी पर्वों व त्योहारों में शरद पूर्णिमा सर्वश्रेष्ठ है। यह शरद ऋतु का विशिष्ट पर्व है। इस दिन चन्दमा पृथ्वी के सबसे अधिक निकट होता है और चन्दमा की चाँदनी अत्यंत निर्मल व पावन होती है। शरद पूर्णिमा का चंद्रमा और उसकी उज्ज्वल चन्द्रिका सभी को माधुर्य व आनंद की अनुभूति कराती है। ऐसा माना जाता है कि शरद पूर्णिमा की दिव्य व वैभवमयी रात्रि के चंद्रमा की चाँदनी में अमृत समाहित होता है। अतः शरद पूर्णिमा की रात्रि को अमृत बरसता है। शरद पूर्णिमा ग्रीष्म से शरद में प्रदेश का द्वार है। इसे भक्ति व प्रेम के रस का समुद्र भी माना गया है। इसको कन्हैया की वंशी का प्रेम नाद एवं जीवात्मा व परमात्मा के रास रस का आनंद भी कहा गया है। इसीलिए इसे लोक से लेकर शास्त्रों तक में शुभ व मंगलकारी माना गया है। शरद पूर्णिमा जीवन को एक नई प्रेरणा देने के साथ-साथ जीवन के उत्थान का आधार और उसे सही दिशा दिखाने का माध्यम भी है। वस्तुतः शरद पूर्णिमा जितनी पावन व पुनीत किसी भी ऋतु की कोई भी रात्रि नही है।शरद पूर्णिमा महालक्ष्मी का भी पर्व है।ऐसी मान्यता है कि धन-सम्पत्ति की अधिष्ठात्री भगवती महालक्ष्मी शरद पूर्णिमा की रात्रि में पृथ्वी पर भ्रमण करती हैं। अतः यह लक्ष्मी पूजा का भी पर्व है। इस तिथि को देवराज इंद्र तक ने माँ महालक्ष्मी का स्तवन किया था। क्योंकि महालक्ष्मी धन के अतिरिक्त यश,उन्नति, सौभाग्य व सुंदरता आदि की भी देवी हैं। 
विभिन्न धर्म-ग्रंथों में शरद पूर्णिमा को अत्यंत गुणकारी माना गया है। शरद पूर्णिमा पर चन्द्रमा की अमृतमयी रश्मियाँ न केवल हमारे मन पर अपितु समूची प्रकृति पर अपना विशेष प्रभाव डालतीं हैं। अतः इस दिन हम सभी का मन उमंगों से सराबोर हो जाता है। छह ऋतुओं के मध्य स्थित शरद ऋतु की पूर्णिमा को कवियों ने अपनी काव्य रचनाओं में "नव वधु" की संज्ञा दी है। चूंकि शरद पूर्णिमा की रात्रि में चंद्रमा से अमृत झरता है इसलिये इस रात्रि को खुले आकाश के नीचे दूध व चावल से बनी खीर रखने का विधान है। इस खीर को खाने से शरीर निरोग, मन प्रसन्न और आयु में वृद्धि होती है। ऐसा आयुर्वेद के ज्ञाताओं का कहना है। 
इस दृष्टि से शरद पूर्णिमा हम सभी को आरोग्यता भी प्रदान करती है। इस दिन महर्षि वेद व्यास द्वारा रचित चंद्रमा के 27 नामों वाले "चंद्रमा स्तोत्र" का पारायण करने का भी विधान है। जिसमें प्रत्येक श्लोक का 27 बार उच्चारण किया जाता है। 
शरद पूर्णिमा की पीयूष वर्षिणी रात्रि को भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी 11 वर्ष की आयु में श्रीधाम वृन्दावन के वंशीवट क्षेत्र स्थित यमुना तट पर असंख्य ब्रज गोपिकाओं के साथ दिव्य महारास लीला की थी। सर्वप्रथम उन्होंने अपनी लोक विमोहिनी वंशी को बजाकर गोपिकाओं को एकत्रित किया और फिर योगमाया के बल पर शरद पूर्णिमा की रात्रि को छह माह जितना बड़ा बनाकर प्रत्येक गोपिका के साथ एक-एक श्रीकृष्ण प्रकट किए। ततपश्चात दिव्य महारास लीला की। इस दिव्य महारास लीला में समस्त गोपिकाओं को यह अनुभव हो रहा था कि श्रीकृष्ण केवल उन्हीं के साथ हैं। भगवान शिव भी ब्रज गोपी का रूप धारण कर इस    अद्यूतीय लीला को देखने आए थे। क्योंकि उसमें किसी भी पुरूष का प्रवेश वर्जित था। तभी से भगवान शिव का एक नाम "गोपीश्वर महादेव" एवं भगवान श्रीकृष्ण का एक नाम "रासेश्वर श्रीकृष्ण" पड़ा। अन्य देवता भी इस लीला को देखने के लिए अपने-अपने विमानों में बैठकर आकाश पर छाए रहे थे। साथ ही उन्होंने पुष्प बरसाए थे। ऐसा माना जाता है कि महारास लीला के बाद से ही संगीत का उद्भव हुआ। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में 29 से 33वें अध्याय तक महारास लीला का विस्तार से वर्णन है। 
महारास लीला के मूलभाव को इस प्रकार समझा जा सकता है: वस्तुतः भागवान श्रीकृष्ण आत्मा हैं, आत्मा की वृत्ति राधा हैं और शेष आत्माभिमुख वृत्तियां गोपियां हैं। इन सभी का धारा प्रवाह रूप से निरंतर आत्म रमण ही महारास है। भगवान श्रीकृष्ण के समान ही गोपिकाएँ भी परम् रसमयी व सच्चिदानंदमयी थीं। इसीलिए वे भगवान श्रीकृष्ण की मुरली की सम्मोहक पुकार सुनते ही अपने सभी पारिवारिक दायित्वों को छोड़कर तुरंत उनके पास चलीं आयीं। वस्तुतः उनका यह त्याग धर्म, अर्थ और काम का त्याग था। चूंकि भगवान श्रीकृष्ण का सानिध्य मोक्ष दायक है इसलिए उन्होंने उसकी प्राप्ति के लिए अन्य पुरुषार्थों को त्याग दिया। यह उनके विवेक और वैराग्य का सूचक था। विवेक के ही द्वारा नित्य व अनित्य का ज्ञान होता है। और वैराग्य लोक-परलोक के भोगों में अलिप्तता का सूचक है। भगवान श्रीकृष्ण ने जब गोपीकाओं को अपने नारी धर्म के निर्वाह का उपदेश दिया तो उन्होंने उनसे यह कहा कि आप ही नित्य हैं, अन्य सभी सम्बंध अनित्य हैं अतः आपसे अनुराग रखना ही हम सभी का धर्म है। इस सबका सार यह है कि यदि जीव ईश्वर से एकाकार होना चाहता है तो उसे गोपीभाव अपनाना होगा और उसे अपने अहंकार व अभिमान का त्याग करके "कृष्ण"नामक परम्  तत्व से जुड़ना होगा। 
जो व्यक्ति भगवान श्रीकृष्ण की इस दिव्य महारास लीला के भाव को समझने में असमर्थ हैं उन व्यक्तियों को यह लीला श्रृंगार रस से परिपूर्ण दिखाई देती है। जब कि ऐसा रंच-मात्र भी नही है। भगवान श्रीकृष्ण तो कृपा से साक्षात अवतार थे। साथ ही वह "पूर्ण काम"हैं। उनके मन में कभी कोई कामना आती ही नही है। साथ ही उनकी इच्छा के बगैर कामदेव भी उनके अंदर प्रवेश नही कर सकता है। अतः वह महारास लीला लौकिक काम की दृष्टि से कैसे कर सकते थे। लौकिक दृष्टि से देखें तो हम यह पाएंगे कि भगवान श्रीकृष्ण ने महारास लीला अपनी मात्र 11 वर्ष की बाल्यावस्था में की थी। इस आयु में भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा की गई इस लीला को कामवासना से प्रेरित कहना हास्यास्पद है। क्योंकि यह आयु कामवासना की नही होती है। श्रीमद्भागवत में महारास लीला के प्रसङ्ग का वर्णन परमयोगी सुखदेव महाराज ने किया है और उसके श्रोता विवेक-वैराग्य सम्पन्न व अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करने वाले परीक्षित महाराज हैं। ऐसे पुण्यात्मा वक्ता-श्रोता लौकिक श्रृंगार की बातें कहेंगे-सुनेंगे, यह सोचना मूर्खतापूर्ण है। सच तो यह है कि भगवान श्रीकृष्ण ने महारास लीला के माध्यम से आनंद की जो अंतिम सीमा है, उस अंतिम सीमा वाले आनंद अर्थात महारास के रस को अधिकारी जीवों में वितरित किया था। 
शरद पूर्णिमा के दिन श्रीधाम वृन्दावन में चहुँओर अत्यंत विकट, अद्भुत व निराली धूम रहती है। क्योंकि शरद पूर्णिमा, वृन्दावन और महारास एक दूसरे के पूरक हैं। 
साथ ही यहां आज के ही दिन भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा की गई अपूर्व रस-वृष्टि की अजस्त्र धारा आज भी यहां प्रवाहित होकर ब्रज संस्कृति को अनुप्राणित कर रही है। इसीलिए शरद पूर्णिमा को रास पूर्णिमा भी कहा जाता है। शरद पूर्णिमा के दिन वृन्दावन के ठाकुर बाँके बिहारी मंदिर में ठाकुर बाँके बिहारी जी महाराज मोर मुकुट,कटि-काछनी एवं वंशी धारण करते हैं। साथ ही यहां के विभिन्न वैष्णव मंदिरों में ठाकुर श्रीविग्रहों का श्वेत पुष्पों, श्वेत वस्त्रों एवं मोती के आभूषणों से भव्य श्रृंगार किया जाता है। ठाकुर जी के विग्रहों के भोग में भी श्वेत व्यंजनों व पकवानों की प्रधानता रहती है। इसके अलावा यहां जगह-जगह विभिन्न रासलीला मण्डलियों के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य महारास लीला का अत्यंत नयनाभिराम व चित्ताकर्षक मंचन किया जाता है। जो कि देर रात्रि तक चलता है। इस दर्शन हेतु देश विदेश से असंख्य भक्त-श्रद्धालु प्रतिवर्ष वृन्दावन आते हैं। ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति एक बार भी इस दिव्य लीला का दर्शन व श्रवण कर लेता है उसे भगवान श्रीकृष्ण की परम् भक्ति प्राप्त होती है। साथ ही वह लौकिक काम से विरक्त हो जाता है।
आज समूचा विश्व ताप से आहत है। क्योंकि मौजूदा भौतिक व यांत्रिक युग में तनाव,दुर्भावनाएं व पारस्परिक वैमनस्य आदि अत्यधिक बढ़ गए हैं। ऐसे में हम सभी के जीवन में भक्ति रूपी,पावन व पुनीत चंद्रमा के उदित होने परम् आवश्यकता है।ताकि हम सभी के जीवन में भी सदैव अमृत झरता रहे। साथ ही हम सबके अशांत मन को शांति मिले, समाज को सद्भावना का प्रकाश मिले एवं हमारे राष्ट्र को आतंक व अराजकता जैसी समस्याओं से मुक्ति मिले।

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं आध्यात्मिक पत्रकार हैं)
डॉ. गोपाल चतुर्वेदी
राजकुमार गुप्ता 

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