जौनपुर। कुर्बानियों का मजहब है इस्लाम- सफदर हुसैन

जौनपुर। माहे मोहर्रम की दूसरी व तीसरी तारीख को भी मजलिस, मातम व जुलूस निकाल कर कर्बला के शहीदों का गम मनाने का सिलसिला जारी रहा। नगर के बारगाहे हुसैनिया मीरघर में सोमवार की रात्रि मजलिस को सैय्यद शाहिद हुसैन ने पढ़ते हुए कर्बला का वाक्या बयान किया, सोजख्वानी सैय्यद अबूजर, नवाब ज़ैदी ने पढ़ा पेशख्वानी हसन रज़ा, जाफर इमाम ने किया। अंजुमन-जुल्फेकरिया मस्जिद तला ने नौहा पढ़ा,संचालन सज्जाद नक़ी ने किया। वही मोहर्रम पर शिया धर्मगुरु मौलाना सफदर हुसैन जैदी ने बताया कि इस्लाम कुर्बानियों का मजहब है और अल्लाह ने इस्लाम के पहले महीने को इस्लाम पर कुर्बान होने वाले शहीदों के नाम लिख दिया है। हम सबको पता है कि इस महीने में हजरत इमाम हुसैन इबे अली ने अपने छह माह के दूध पीते बच्चे सहित अपने पूरे खानदान से लेकर 71 साथियों  की शहादत पेश करना कुबूल किया, लेकिन यजीद के हाथों बैयत नहीं की। अगर हजरत इमाम हुसैन भी यजीद से बैयत कर लेते तो आज इस्लाम की तवारीख और सूरत अलग होती। आज जो मस्जिदें आबाद हैं तो हजरत इमाम हुसैन की उस अजीम कुरबानी की बदौलत ही है। उन्होंने कहा कि इस्लाम का पहला महीना हजरत इमाम हुसैन की इसी अजीम कुर्बानी को याद करने का महीना है और कर्बला के शहीदों को याद करने और उन शहीदों के प्रति अपनी अकीदत पेश करने का महीना है। इसीलिए मुसलमान 1400 साल से ज्यादा समय से इस महीने को गम की रूप में मनाते चले आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि दो मोहर्रम को हजरत इमाम हुसैन कर्बला पहुंचे। इमाम हुसैन के साथ बच्चों समेत कुल 72 लोग थे और उस तरफ यजीद की लाखों की फौज। 7 मोहर्रम तक यजीद ने इमाम हुसैन को हजार तरह के लालच देकर अपनी ओर झुकाने की नाकाम कोशिश की और फिर कामयाब न होने पर 7 मोहर्रम को नहरे फुरात पर कब्जा कर पानी बन्द कर दिया गया। उस पर भी इमाम हुसैन नहीं झुके तो 10 मोहर्रम को इमाम हुसैन के साथ आये सभी 72 लोगों को शहीद कर दिया और औरतों और बच्चों को कैद कर कूफे और शाम की गलियों में बेपर्दा घुमाया गया। रसुल्लाह सलल्लाहो अलैहै व आलेही वसल्लम की बेटियों को जिनको कभी भी किसी ने बगैर चादर के नहीं देखा था। इमाम हुसैन के परिवार की महिलाओं को यजीद ने पूरे शहर में घुमाया और जब इतने से भी यजीद का जी नहीं भरा तो शाम के ऐसे कैदखाने में जिसमें धूप तक न जाती थी उन्हें कैद कर दिया गया। खुदा इतना गम किसी को न दें जितना कि रसूल सलल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के खानदान वालों ने इस्लाम को बचाने में सहन किये हैं।

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