विधि संवाददाता हिमाद्री वर्मा 

हिंदी संवाद न्यूज के लिए एक खास रिपोर्ट

कॉर्पोरेट इंडिया में मौन संकट: जब कार्यस्थल कर्मचारियों के लिए युद्धभूमि बन जाए

भारत के चमचमाते कॉर्पोरेट टावरों और व्यस्त दफ्तरों के बीच एक मौन संकट गहराता जा रहा है—एक ऐसा संकट जो न केवल कर्मचारियों की भलाई, बल्कि हमारे समाज की बुनियाद को भी खतरे में डाल रहा है। लंबे कार्य घंटे, अव्यावहारिक अपेक्षाएँ और विषाक्त कार्य संस्कृति अब नया सामान्य बन चुके हैं। किसी भी तीन कर्मचारियों से बात कीजिए, उद्योग या कंपनी चाहे जो भी हो, कम से कम एक आपको शोषण, उत्पीड़न या निराशा की कहानी सुनाएगा।

स्थिति बेहद गंभीर है। कर्मचारियों को उनकी सेहत और निजी जीवन की परवाह किए बिना उनकी सीमाओं तक धकेला जा रहा है। असंभव लक्ष्यों को पूरा करने का दबाव लगातार बना रहता है, ऊपर से खराब योजना और अव्यवस्थित प्रबंधन इस तनाव को और बढ़ा देते हैं। कई लोगों के लिए इस अथक मेहनत का इनाम है—निराशाजनक रूप से कम वेतन, वेतन में देरी, और कई बार बिना पूर्व सूचना के अवैध रूप से नौकरी से निकाल दिया जाना।

यह केवल कार्यस्थल की असंतुष्टि का मामला नहीं है—यह एक मानवीय संकट है। अनियमित भुगतान और मनमाने ढंग से नौकरी से निकाले जाने की घटनाएँ आम हो गई हैं, जिससे परिवार आर्थिक संकट में फँस जाते हैं और व्यक्ति अपनी गरिमा खो बैठते हैं। कॉर्पोरेट इंडिया की नई “नैतिकता” अब शोषण और मानवाधिकारों की अनदेखी से परिभाषित होती दिख रही है।

अब सरकार के हस्तक्षेप का समय आ गया है। मौजूदा श्रम और औद्योगिक कानूनों को न केवल सख्ती से लागू किया जाना चाहिए, बल्कि उन्हें और मजबूत भी किया जाना चाहिए, ताकि उल्लंघन करने वालों पर सख्त कानूनी कार्रवाई हो सके। कर्मचारियों को उनके परिश्रम का सम्मान, सुरक्षा और उचित वेतन मिलना चाहिए। अगर तुरंत कदम नहीं उठाए गए, तो कॉर्पोरेट जगत एक ऐसी युद्धभूमि बन जाएगा जहाँ केवल निर्दयी ही टिक पाएँगे और लाखों लोगों के सपने बेरहमी से कुचल दिए जाएँगे।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर आँकड़े के पीछे एक इंसान है—एक माँ, एक पिता, एक युवा स्नातक—जो संतुलन, सुरक्षा और उम्मीद की तलाश में संघर्ष कर रहा है। भारत की विकास गाथा अपने श्रमिकों की टूटी हुई पीठों पर नहीं लिखी जा सकती। बदलाव का समय अब आ गया है।

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