*नदी का किनारा*
बहती नदी संग मैं ठहरा सा बैठा,
तेरी राहों में उम्मीदों को समेटा।
लहरें भी अब तो कहने लगीं,
*दिकु, लौट आओ,*
इन्हीं दुआओं के धागों से हूँ मैं लिपटा।
धूप-छाँव का ये खेल भी सुना सा है,
तेरी हँसी के बिना हर रंग धुंधला सा है।
पानी में देखूँ तो चेहरा तेरा उभरे,
तेरी आहटों का हर साया अपना सा है।
हर लहर तेरे नाम की धुन गाती है,
तेरी परछाईं भी अब मुझे भरमाती है।
अब इन बहारों में क्या धड़कनें सुनें,
जब तक न तू आए, उदासी ही सताती है।
नदी के किनारे नाम तेरा लिखा,
लहरों की छुअन से यह और भी गहरा दिखा है।
अब लौट भी आओ कि साँसें अधूरी हैं,
तेरे बिना हर लम्हा, प्रेम बेसहारा जिया है।
*— प्रेम का इंतज़ार अपनी दिकु के लिए*
प्रेम ठक्कर "दिकुप्रेमी"
9023864367
सूरत, गुजरात
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