राजकुमार गुप्ता 
मथुरा।निकुंजवासी रासाचार्य स्वामी श्रीराम शर्मा के सर्वप्रथम दर्शन मुझे सन् 1986 में श्रीधाम वृन्दावन के वेणु विनोद कुंज में हुए थे।उनसे मेरे सम्पर्क सूत्रधार थे निकुंज लीला प्रविष्ट, परम् पूज्य श्री बाल कृष्ण दास महाराज व उनके अनुज निकुंजवासी श्री घनश्याम दास ठाकुरजी।बाद को मेरा उनसे यह सम्पर्क क्रमशः अति घनिष्ठ होता चला गया।वह मुझे अपने परिवार का ही एक सदस्य मानने लगे।मुझ पर उनका इस कदर अनन्त व अपार स्नेह था कि वे अपनी पारिवारिक व सामाजिक समस्याओं में भी अपना सहभागी बनाने लगे।यदि कभी वे किसी आकस्मिक समस्या से ग्रस्त हों और मैं उस समय वृन्दावन में न होऊं, तो वे मुझे फोन कर के व अधिकार पूर्ण ढंग से तत्काल वृन्दावन चले आने को कहते थे।वह मुझे अपने परिवार के निजी उत्सवों में भी आमन्त्रित करना कभी भी नहीं भूलते थे।यदि किसी कारणवश मैं न आ पाऊं तो वे मुझे मिलने पर उसका उलाहना देकर निरुत्तर कर दिया करते थे।वे मुझसे यह कहा करते थे कि आपके आने से हमें अन्य तमाम लोगों के न आने की उपस्थिति महसूस नहीं होती है।इतना स्नेह, अपनत्व व ममत्व आज के भौतिक व यांत्रिक युग में कहां देखने को मिलता है।
रासाचार्य स्वामी श्रीराम शर्मा का मुझ अकिंचन पर अत्यंत व अपार स्नेह था।उन्हें याद कर आज भी मेरे नेत्र नम हो जाते हैं।कई वर्षों पूर्व की एक घटना है।वृन्दावन के वेणु विनोद कुंज में निकुंजवासी बाल कृष्ण दास जी महराज का  जन्मोत्सव चल रहा था।मैं वहां उनकी प्रतिमा का पूजन - अर्चन करके बिना भोजन-प्रसाद ग्रहण किए अपने निवास पर वापिस चला आया।क्योंकि उत्सव की भीड़-भाड़ व व्यस्तता के चलते वहां मेरे भोजन ग्रहण करने की समुचित व्यवस्था नहीं थी।बाद को जब यह सब पूज्य देवीजी को पता चला तो वे अपने अधीनस्थों पर यह कह कर अत्यधिक नाराज हुईं कि "चतुर्वेदी जी, आए और बिना भोजन किए चले गए।तुम लोग उनको बैठा कर भोजन तक नहीं करा पाए।" स्वामी जी उस समय देवीजी के पास ही बैठे हुए थे।उन्होंने जब देवीजी के मुख से यह सब सुना तो उन्हें भी यह सब अच्छा नहीं लगा।उन्होंने तत्काल "अरे, राम-राम" कह कर देवीजी के कथन को अपना समर्थन दिया।इसके बाद उन दोनों ने आपस में कुछ बातचीत कर टिफिन में भोजन-प्रसाद लगवा कर तुरंत किसी के हाथों हमारे निवास पर भिजवाया। मैं इस कदर उनका अत्यंत लाडला व दुलारा था।
श्रद्धेय स्वामी जी सहजता, सरलता, उदारता, परोपकारिता, कर्मठता आदि अनेक सद्गुणों की खान थे।इसके एक नहीं बल्कि तमाम उदाहरण हैं। मैंने जब भी उनसे अपने या किसी अन्य के कार्य के लिए कहा, तो उसे उन्होंने अपनी पूर्ण लगन व समर्पण के साथ पूर्ण किया।वे सादा जीवन और उच्च विचारों के पोषक थे।उनमें नौजवानों जैसा उत्साह, बल व साहस आजीवन रहा।यदि उन्हें "लौह पुरुष" कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।वह परिश्रम के पर्याय थे।अपने घर में "टू व्हीलर" व "फोर व्हीलर" होने के बावजूद भी उन्हें पैदल चलने में अति आनन्द आता था।सच कहा जाए तो यह उनका व्यसन था। जो कि आजीवन रहा।वे न केवल वृन्दावन में अपितु वृन्दावन से कहीं बाहर जाने पर भी कई-कई किलोमीटर पैदल चल कर अपने इस शौक को पूरा करते थे।इसी के बलबूते पर वे आजीवन निरोगी रहे। कई वर्षों पूर्व उनकी रास मंडली सिरसागंज (फिरोजाबाद) में रासलीला करने गई थी।वहां से छह-साथ किलोमीटर दूर धातरी गांव में उनके एक अति घनिष्ठ व प्रेमी एवं हमारे एक रिश्तेदार रहा करते थे।जिन्होंने मुझे बताया कि दिसम्बर माह की एक अति ठन्डी सुबह लगभग छह बजे स्वामीजी सिरसागंज से धातरी गांव तक पैदल चल कर उनके निवास पर उनसे मिलने चले आए।वे मिलने के बाद जलपान आदि करके पैदल ही सिरसागंज वापिस चले गए।उनसे जब किसी वाहन के द्वारा उन्हें सिरसागंज पहुंचाने के लिए कहा गया, तो वे इसके लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हुए।
रासाचार्य स्वामी श्रीराम शर्मा प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में जागने, दैनिक नित्यकर्म व पूजा-पाठ आदि करने के आदी थे।चाहे उन्हें घर पर रहना हो अथवा कहीं बाहर जाना हो।उनका यह नियम उनके जीवन के अंतिम समय तक अनवरत चलता रहा।इस कार्य को करने में जब वो असमर्थ हो गए तो उनके यह सब नित्य नियम उनके परिवारीजनों के सहयोग से पूर्ण हुआ करते थे।
सम्मान्य स्वामीजी का हृदय अत्यंत उदार व विशाल था। कई वर्षों पूर्व हमारे एक सम्बन्धी अत्यधिक बीमार हो गए।उन्हें जैसे ही यह पता लगा, वे तुरंत अपनी कार लेकर उनके वृन्दावन स्थित निवास पर जा पहुंचे।साथ ही उन्हें मथुरा ले जाकर "स्पंदन हॉस्पिटल" में भर्ती करवाया।बाद को वे उनके परिवारीजनों को काफी रुपए यह कहकर और देकर चले आए कि यह आवश्यकता पड़ने पर आपके काम आएंगे।इसके साथ ही वह अपनी कार भी ड्राइवर सहित उनके पास छोड़ आए।ताकि उन्हें कहीं अन्यत्र जाने में असुविधा न हो।साथ ही वे स्वयं मथुरा से वृन्दावन टेम्पो में बैठकर वापिस लौटे।ऐसे उदाहरण आज कहां देखने को मिलते हैं।आज कल तो लोग बगैर किसी स्वार्थ के किसी की मदद करना तो दूर, बात तक करना पसंद नहीं करते हैं।
रासाचार्य स्वामी श्रीराम शर्मा की रासलीला के क्षेत्र में एक नहीं अपितु अनगिनत देनें हैं।जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता है।इसीलिए वे ब्रज की प्राचीन रास कला के "इतिहास पुरुष" कहे जाते हैं।वस्तुत: वे रासलीला जगत के प्रमुख स्तम्भ थे।इस क्षेत्र में उनके अविस्मरणीय योगदान के चलते ही उन्हें भारत के महामहिम राष्ट्रपति के द्वारा सम्मानित भी किया गया था।उन्होंने अपनी रासमंडली व अपने निर्देशन में रासलीला का मंचन न केवल अपने देश के कोने-कोने में अपितु विदेशों में भी किया।
सहृदय-श्रेष्ठ स्वामीजी रासलीला के प्रति पूर्ण समर्पित थे।यह उनकी जीवन प्राण थी।कृष्ण लीला, रामलीला, चैतन्य लीला, अष्टयाम लीला, निकुंज लीला, विभिन्न भक्त चरित्रों व संत चरित्रों आदि के मंचन में भी उन्हें महारथ हासिल था।उन्होंने अपनी मंडली के द्वारा वृन्दावन के प्रख्यात संत, निकुंज लीला प्रविष्ट बाल कृष्ण दास जी महाराज के जीवन चरित्र का भी मंचन कर अत्यधिक यश कीर्ति अर्जित की थी।जिस पर कि "टेलीफिल्म" भी बन चुकी है।संगीत के तो वे प्रकांड विद्वान थे।विभिन्न राग-रागनियों व शास्त्रीय संगीत आदि के ज्ञान में वे अद्वितीय थे।वस्तुत: संगीत उनका जीवन आधार था।वह मुझसे प्राय: कहा करते थे कि हम बगैर "गाये" जीवित नहीं रह सकते हैं।इसीलिए उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय तक अपनी रासमंडली में गायन व निर्देशन के कार्य को नहीं छोड़ा।
रासाचार्य स्वामी श्रीराम शर्मा आजीवन रास जगत के प्रति पूर्णतः समर्पित रहे।वे अपनी बहुत छोटी सी ही आयु में इस क्षेत्र में आ गए थे।उन्होंने कई वर्षों तक विभिन्न रासलीला मंडलियों में राधा रानी की स्वरूपाई की।उस समय उनके अनुज घनश्याम दास ठाकुरजी भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप बनते थे।इन दोनों की जोड़ी उस समय काफी प्रसिद्ध रही।गोरखपुर स्थित गीता वाटिका के संस्थापक स्व. हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाईजी) व प्रख्यात संत राधा बाबा का इन पर अपार स्नेह था।वे इन्हें अपनी गोद तक में बैठा कर इन्हें लाड़-लड़ाया करते थे।साथ ही ये प्राय: गीता वाटिका में रासलीला के मंचन के लिए भी जाया करते थे।कालांतर में ये अपने निर्देशन में रासलीला मंचन करने के लिए वहां जाने लगे।
पूज्य स्वामीजी ने रासलीला मंडली के पात्रों को कभी भी कलाकार या पात्र न समझकर सदैव भगवद स्वरूप ही समझा।इसी के अनुरूप उनसे उनका व्यवहार रहा।बताया जाता है कि जब भी उनकी मंडली अपने प्रारम्भिक समय में वृन्दावन से बाहर जाती थी तो वे प्रातः काल मंडली के पात्रों के जागने से पूर्व जल्दी जागकर अपनी मंडली के पात्रों के लिए स्वयं बालभोग तैयार करते थे।साथ ही स्वयं उन्हें अपने हाथों से परोसकर बेहद प्रेम पूर्ण ढ़ंग से पवाते थे।यदि मंडली के बाल कलाकारों से कभी कोई गलती भी हो जाए तो वे उसकी जिम्मेदारी स्वयं लेकर अपने हाथों से अपने गालों पर तमाचा मार लेते थे।उनकी रासलीला मंडली से जुड़े हुए अनेक कलाकारों ने मुझे यह बताया है कि उन्हें यह नहीं मालुम कि स्वामीजी रात्रि में कब सोते थे और प्रातः काल कब जागते थे।क्योंकि हमने उन्हें कभी सोता हुआ नहीं देखा।हमने तो उन्हें सदैव ही अपनी सेवा में रत देखा है।धन्य है, स्वामीजी की अपने रासबिहारी के प्रति ऐसी सेवा, भक्ति व आराधना।आज की विभिन्न रासलीला मंडलियों को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।
रासाचार्य स्वामी श्रीराम शर्मा कई वर्षों पूर्व सिरसागंज (फिरोजाबाद) के गिरधारी इंटर कॉलेज में अपनी रासमंडली के द्वारा रासलीला का मंचन कर रहे थे।एक दिन लीला-दर्शन हेतु एक पूज्य शंकराचार्य पधारे।वे जब ठाकुर स्वरूपों का पूजन-अर्चन व आरती आदि करने के लिए रास मंच पर गए, तब उन्होंने अपने पैरों की खड़ाऊं मंच के नीचे नहीं उतारी।रास मंच की मर्यादा से कभी भी समझौता न करने वाले व परम् सिद्धांतवादी स्वामीजी को यह अत्यंत नागवार लगा।उन्होंने ये सब देख कर तुरंत अपने सहयोगियों से लीला स्वरूपों के समक्ष परदा गिरवा दिया।जिससे पूज्य शंकराचार्य को बगैर पूजन-अर्चन किए मंच से वापिस उतरना पड़ा।इसके बाद स्वामीजी ने मंच पर लीला स्थल वाली जगह पर पड़ने वाली सफेद चादर को भी यह कहकर बदलवा दिया - "ठाकुरजी की यह क्रीड़ा स्थली अब अशुद्ध हो गई है।" इस सब के बाद चादर बदलने पर पुनः लीला प्रारम्भ हुई।यह सब देख कर और महसूस कर वहां पांडाल में बैठे पूज्य शंकराचार्य को भी अत्यंत शर्मिंदगी महसूस हुई।साथ ही उन्होंने स्वामीजी से अपने इस कृत्य के लिए क्षमा याचना की।
श्रीधाम वृन्दावन के प्रख्यात व अत्यंत लोकप्रिय संत श्री प्रेमानंद जी महाराज बताते हैं, कि उन्हें वृन्दावन वास रासाचार्य स्वामी श्रीराम शर्मा की ही प्रेरणा से मिला है।उनका कहना है कि कई वर्षों पूर्व जब स्वामीजी काशी के श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार अंध विद्यालय में रासलीला का मंचन करने गए, तब मैं भी एक दिन रासलीला के दर्शन करने गया। मैं उन दिनों काशी के गंगा तट पर रह कर शिव-आराधना में लीन रहा करता था। मैं उनके द्वारा मंचित रासलीला का दर्शन कर उनसे अत्याधिक प्रभावित हुआ।साथ ही मेंने बगैर नागा किए कई दिनों तक निरंतर रासलीला देखी।बाद को जब स्वामीजी रासलीला का आयोजन सम्पन्न कर काशी से वापिस जाने लगे, तो मेंने उनसे कहा कि आप मुझे भी अपने साथ ले चलो।क्योंकि अभी हमारे रहने का कहीं कोई स्थाई ठिकाना नहीं है।आपके साथ रहकर निरंतर रासलीला के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता रहेगा।इस पर स्वामीजी ने मुझसे कहा कि "यह सम्भव नहीं है।यदि आपको निरंतर रासलीला ही देखनी है,तो वृन्दावन में आकर रहो।वहां कहीं न कहीं आपको नित्य ही रासलीला के दर्शन होते रहेंगे।" संत प्रेमानंद जी महाराज बताते हैं, कि इस सबके बाद मेरे जीवन की दशा और दिशा ही बदल गई। मैं रासलीला के दर्शन करने व वृन्दावन जाने के लिए छटपटाने लगा।कालांतर में, मैं काशी छोड़कर सदैव के लिए श्रीधाम वृन्दावन चला आया।तभी से वृन्दावन में आए संत प्रेमानंद जी महाराज को स्वामी जी का सानिध्य व रासलीला दर्शन सहज ही प्राप्त होता रहा।महाराज जी स्वामीजी को अत्यंत आदर व सम्मान देते थे।वे सभी से कहा करते थे, कि मुझे वृन्दावन वास दिलाने वाले एकमात्र स्वामीजी ही हैं।महाराजजी जब "हितधाम" में अपने प्रवचन देते थे, तब स्वामीजी प्राय: उनके प्रवचन सुनने जाते थे।महाराजजी, स्वामीजी को अति सम्मानित ढ़ंग से कुर्सी पर उनका आसन लगवाकर बैठाते और उन्हें अपने ही हाथों से फूलों की माला धारण कराते थे।इन दोनों में परस्पर अति प्रेम व घनिष्ठता रही।संत प्रेमानंद जी महाराज ने वृन्दावन के परिक्रमा मार्ग पर जब अपने "श्रीराधा केलि कुंज" आश्रम का निर्माण कराया तो उन्होंने उसका उद्घाटन स्वामीजी की ही रासमंडली के द्वारा रासलीला का मंचन करके करवाया था।
यों तो उस नश्वर संसार में प्रतिदिन असंख्य व्यक्ति जन्म लेते हैं और असंख्य व्यक्ति यहां से विदा होते हैं, परंतु याद केवल और केवल रासाचार्य स्वामी श्रीराम शर्मा जैसी विभूतियों को ही किया जाता है; जिन्होंने कि सार्थक जीवन जीते हुए लोक कल्याण के अनेकानेक कार्य किए हुए होते हैं। मैं अत्यंत बडभागी हूं,जो मुझे स्वामीजी के पावन सानिध्य में कई वर्षों तक अपना जीवन जीने और उनसे बहुत कुछ सीखने का अवसर प्राप्त हुआ।वस्तुत: वे मेरे जीवन की एक ऐसी बहुमूल्य निधि हैं,जिस पर मैं सदैव गर्व करता रहूंगा।
रासाचार्य स्वामी श्रीराम शर्मा जैसी पुण्यात्माएं अब पृथ्वी पर कहां हैं? उन जैसी विभूतियों का तो अब युग ही समाप्त होता चला जा रहा है।उनका स्मरण यदि सद्गुणों का संरक्षण व उन्नयन कर निस्वार्थ परोपकार की महिमा जगा सके, तो यह हम सभी की उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
स्वामीजी के स्मृति-ग्रंथ का प्रकाशन नि:संदेह व्यापक जनहित का कार्य हैं।क्योंकि इसमें उनके व्यक्तित्व व कृतित्व का दिग्दर्शन कर असंख्य व्यक्तियों को प्रेरणा व ऊर्जा प्राप्त होगी।साथ ही आज की युवा पीढ़ी भी लाभान्वित होगी।
रासाचार्य स्वामी श्री कुंजबिहारी शर्मा अत्यंत प्रशंसा के पात्र हैं, जो वे अपने पूज्य पिताश्री की स्मृति-रक्षा हेतु उनके स्मृति-ग्रंथ का प्रकाशन कर लोक-कल्याण का बहुत बड़ा कार्य कर रहे हैं।साथ ही उनके द्वारा छोड़ी गई रासलीला की अमूल्य विरासत को संरक्षित कर, उसे और अधिक विस्तार दे रहे हैं।एतदर्थ, उनको अनन्त शुभकामनाएं व बधाइयां।

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं आध्यात्मिक पत्रकार हैं।)

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