*जैकारा, डैमोक्रेसी की मम्मी का!*
*(व्यंग्य : राजेन्द्र शर्मा)*

हम इंडिया वालों ने भी गजब कर रखा है। डैमोक्रेसी की मम्मी की कुर्सी कब से खाली पड़ी है। दुनिया इंतजार कर रही है कि इंडिया वाली डैमोक्रेसी जी आएं, तो उन्हें मम्मी जी वाली इस कुर्सी पर बैठाएं। पर इंडिया वाली डैमोक्रेसी जी की जान को खुद देश में ही इतने झगड़े-झंझट हैं कि पूछो ही मत। बेचारी देसी झगड़ों से छुट्टी पाएं, तब न विश्व डैमोक्रेसी की मम्मी की कुर्सी की शोभा बढ़ाएं। इसी चक्कर में तो बीते साल में डैमोक्रेसी की मम्मी की कुर्सी खाली की खाली रह गयी। नहीं, नहीं, इसमें नेहरू वगैरह की सरकारों की कोई गलती हो तो हो, मोदी जी की सरकार की कोई गलती नहीं है। उल्टे मोदी जी की सरकार ने तो अपनी तरफ से हरेक कोशिश की थी, बहुत पुराने जमाने के भारत को डैमोक्रेसी की मम्मी डिक्लेअर कराने की। सुनते हैं कि नये इंडिया के नये इतिहास अनुसंधान परिषद ने हाथों-हाथ खुदाई में डैमोक्रेसी माता के नाम की तख्ती भी खोज निकाली थी। सारी दुनिया यह दस्तावेजी साक्ष्य आने के बाद, भारत को डैमोक्रेसी की मम्मी घोषित करने के लिए करीब-करीब तैयार भी थी। इशारे के तौर पर भारत को जी-20 का अध्यक्ष भी तो बना दिया गया। पर पुराने भारत के इतिहासकारों ने भांजी मार दी। विवाद खड़ा कर दिया कि तख्ती पर लिखे की सचाई को भूल भी जाएं तो, तख्ती की लिखाई सौ-सवा सौ साल से ज्यादा पुरानी तो हर्गिज नहीं होगी। हल्ला मचा दिया कि ये तो डैमोक्रेसी की मम्मी के अंगरेजी राज के टैम के टाइटिल को देश के माथे पर लगाना चाहते हैं! बस पड़ गया डैमोक्रेसी की मम्मी के विश्व अवतरण का ढोल बजवाने का कई मिलियन डॉलर का प्रोजैक्ट ठंडे बस्ते में।

पर 2022 में हुआ सो हुआ, 2023 में भी मोदी जी के नये इंडिया के डैमोक्रेसी की विश्व मम्मी की गद्दी पर बैठने के आसार, हमें तो नजर नहीं आ रहे हैं। बताइए! झारखंड में खुद मोदी जी के नंबर-टू, अमित शाह ने बाकायदा एलान किया है कि झारखंड में विपक्षियों की सरकार बची हुई है, तो उन्हीं की कृपा से। वर्ना उनकी पार्टी के झारखंड के सीएम की कुर्सी के उम्मीदवार ने तो बाकायदा उनसे मांग की थी कि सरकार बदल दो। पर उन्हें ही डैमोक्रेसी की मम्मी का ख्याल आ गया। साफ कह दिया, भैया मैं ऐसे सरकार नहीं बदल सकता! पर मजाल है कि विरोधियों के मुंह से मोदी-शाह की इस कृपा के लिए थैंक यू का एक लफ्ज तक निकला हो। डैमोक्रेसी माता का जयकारा तक नहीं। उल्टे कह रहे हैं कि शाह जी ने तो मरांडी को इसकी झिडक़ी दी थी कि ऐसे कैसे मुंह उठाकर चले आए, सरकार गिरवाने। मप्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र की तरह, पहले डेढ़-दो दर्जन विधायक खरीदकर लाओ, फिर विपक्षी सरकार गिरवाओ! अब विधायक नहीं बिके, तो मजबूरी का नाम डैमोक्रेसी!

उसके ऊपर से दिल्ली में एमसीडी मामला और आ गया। एक तो पब्लिक ने चुनाव में भगवा पार्टी को हरा दिया। उसके  बाद भी शाह जी की पार्टी ने जैसे-तैसे एमसीडी में अपना मेयर चुनवाने का जुगाड़ बैठाया, तो भाई लोगों ने उसमें भी टांग अड़ा दी। निर्वाचित-अनिर्वाचित का ही झगड़ा खड़ा कर दिया, जैसे डैमोक्रेसी में मेयर-डिप्टी-मेयर चुनने के लिए वोट डालने के लिए, बंदे का खुद चुना हुआ होना जरूरी हो। क्या 130 करोड़ भारतीयों के चुने हुए प्रधानमंत्री की इच्छा, किसी अनिर्वाचित को निर्वाचक बनाने के लिए भी काफी नहीं है? बताइए, एक सौ तीस करोड़ का पीएम, मुश्किल से डेढ़-दो करोड़ की एमसीडी में, अपनी पसंद का मेयर भी नहीं बनवा सकता! चुनाव कराना पड़ रहा है। पर उसमें भी हंगामा। मेयर का चुनाव नहीं हुआ तो नहीं हुआ, ऊपर से डैमोक्रेसी की मम्मी का गद्दारोहण खटाई में और पड़ गया। अब दिल्ली, रांची थोड़े ही है; दिल्ली में मोर नाचे, सब देख ही लेते हैं!               

*(व्यंग्यकार प्रतिष्ठित पत्रकार और 'लोकलहर' के संपादक हैं।)*

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