(अच्छा लगे, तो मीडिया के साथी *बृंदा करात* का यह आलेख ले सकते हैं। सूचित करेंगे या लिंक भेजेंगे, तो खुशी होगी।)

*एक "समृद्ध और जीवित लोकतंत्र" में प्लांटेड षडयंत्र*
*(नज़रिया : बृंदा करात)*

G-20 समूह के अध्यक्ष के रूप में भारत के सामने हर दिन नई बाधाएं आती हैं। प्रधान मंत्री के शब्दों में, यह इस बात का सबूत है कि भारत में "दुनिया का इतना समृद्ध और जीवित लोकतंत्र है।"

लेकिन ये बाधाएं आम नागरिकों द्वारा नहीं, बल्कि केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के विभिन्न स्तरों पर काम कर रहे पदाधिकारियों द्वारा रखी जाती हैं। दो सबसे हालिया उदाहरणों को लें - बॉलीवुड और राजनीतिक सक्रियता के। ये दोनों उदाहरण दो भिन्न दुनिया के हैं, लेकिन निश्चित ही इनमें बहुत ज्यादा दूरी नहीं है।

पहला उदाहरण नरोत्तम मिश्रा द्वारा दी गई धमकी है, जो कोई हाशिए के व्यक्ति नहीं है, बल्कि मध्य प्रदेश सरकार के गृह मंत्री हैं। ये भाजपा मंत्री पत्रकारों को यह कहते हुए सुने जा रहे हैं, "उन्होंने जो वेशभूषा पहनी है, वह बेहद आपत्तिजनक है और फिल्म के दृश्य दूषित दिमाग की उपज है – मैं इन दृश्यों और उनकी वेशभूषा को ठीक करने का अनुरोध करता हूं, अन्यथा इस पर विचार करना होगा कि फिल्म मध्यप्रदेश में दिखाई जा सकती है या नहीं।" उसी सांस में, उन्होंने पादुकोने को "टुकड़े-टुकड़े गिरोह" के समर्थक के रूप में वर्णित किया। उनका इशारा जनवरी 2020 में पादुकोने की जेएनयू परिसर की अचानक यात्रा के संदर्भ में था, जब कुछ नकाबपोश लोगों द्वारा जेएनयू के परेशान छात्रों पर क्रूरतापूर्वक हमला किया गया था और इस हमले में छात्र संघ की निर्वाचित युवती अध्यक्ष आइशी घोष के सिर में गंभीर चोटें आईं थीं। तब एक युवा महिला की छवि ने, जिसके सिर पर भारी पट्टी बंधी हुई थी, लेकिन जो इन हमलों के आगे झुकी नहीं थी, ने पूरे भारत में एकजुटता आंदोलनों को जन्म दिया था। ऐसा लगता है कि मंत्री उन लोगों का समर्थन करते हैं, जिन्होंने आइशी को घायल किया था ; नहीं तो वह पादुकोने की सहानुभूति के भाव पर आपत्ति क्यों करेंगे?

नैतिक आक्रोश और पुलिसिंग काफी खराब बात है। आखिरकार, भारत में एक राष्ट्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड है। फिल्म को सेंसर बोर्ड ने मंजूरी दे दी है और यह फिल्म रिलीज होने वाली है। फिर मंत्री कौन होता है, यह तय करने वाला कि कोई फिल्म दिखाई जाए या नहीं? यह और भी बुरा है, क्योंकि पोशाक के बारे में उनका नैतिक आक्रोश केवल धोखा है। क्या भारत में बिकिनी पहनना बैन है? फिर इतना चयनात्मक क्यों? कुछ इसी तरह की पोशाक 'धाकड़' नामक हालिया फिल्म में दिखी थी, जिसे वर्तमान शासन ने काफी सराहा था। प्रधान मंत्री का साक्षात्कार करने के लिए चुने गए एकमात्र बॉलीवुड स्टार की 2019 की एक फिल्म में भी उसके सह-कलाकार ने इसी तरह की स्विमवियर पोशाक पहनी थी, जिसे अब "अत्यधिक आपत्तिजनक" पाया जा रहा है। यह चयनात्मक स्थिति बहुत खतरनाक है।

धमकी की वजह और भी भयावह हो सकती है। शाहरुख खान 'पठान' में नायक की भूमिका में हैं। मंत्री मिश्रा की टिप्पणियों के कुछ ही घंटों के भीतर, प्रशिक्षित ट्रोल्स सेना ने फिल्म के खिलाफ एक अभियान शुरू कर दिया, जिसमें प्रतिबंध के आह्वान से लेकर बहिष्कार तक का आह्वान किया गया था। इन पोस्टों को पढ़ा जाएं, तो उनकी सामान्य व्याख्या यही दर्शाती है कि मंत्री की धमकी किसके खिलाफ निर्देशित की गई थी। पोस्ट किये गये एक वीडियो में एक व्यक्ति कह रहा है, "यदि आप देश भक्ति की बात करना चाहते हैं, तो आप अपनी फिल्म को ’पठान’ नहीं कह सकते"। अन्य पोस्टों का सांप्रदायिक मंतव्य  और भी स्पष्ट हैं। ये टिप्पणियां इतनी आक्रामक हैं कि उन्हें यहां दोहराया नहीं जा सकता। मंत्री इस अभियान से जरूर वाकिफ होंगे। उनकी चुप्पी मिलीभगत नहीं, तो स्वीकृति का संकेत जरूर दे रही है। कुछ महीने पहले, आमिर खान अभिनीत एक फिल्म के खिलाफ भी एक शातिर अभियान शुरू किया गया था। यह फिल्म एक हॉलीवुड फिल्म पर आधारित थी, जिसने ऑस्कर जीता था -- लेकिन यहां भारत में, क्योंकि यह आमिर खान से जुड़ी थी, फिल्म को निशाना बनाया गया था, जिसने कथित तौर पर इसकी बॉक्स ऑफिस कमाई को भी प्रभावित किया था।

भारत में लोकतांत्रिक सोच वाले नागरिकों को इन घटनाक्रमों को और इसमें निहित खतरों को गंभीरता से लेना चाहिए। अमेरिका में कुख्यात मैककार्थी युग के दौरान, शासन के आलोचक माने जाने वाले हॉलीवुड सितारों पर कम्युनिस्ट होने का आरोप लगाया गया था -- "टुकड़े-टुकड़े गिरोह" के आरोप के बराबर -- और वास्तव में उन्हें फिल्म उद्योग में काम करने से रोका गया था। इसके अलावा, भारत में हाल की घटनाओं से संकेत मिलता है कि बॉलीवुड के कलाकार भले ही वर्तमान शासन के आलोचक न हों, लेकिन उन्हें उनके नाम के कारण निशाना बनाया जा रहा है और उनकी पहचान और उनके काम की सफलता को खत्म करने को लक्ष्य के रूप में रखा जा रहा है।

दूसरा उदाहरण भीमा कोरेगांव मामले का है। इस मामले में 16 लोगों को क्रूर यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया है और वे दो से चार साल से जेल में हैं। 16 में से तीन जमानत पर बाहर हैं, एक को जेल से हाउस अरेस्ट में स्थानांतरित कर दिया गया है और एक की मौत हो चुकी है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी, जिसने इस मामले का परीक्षण किया था, ने फादर स्टेन स्वामी को जमानत देने का कड़ा विरोध किया था। 80 साल से अधिक उम्र के, कमजोर और अस्वस्थ स्टेन स्वामी को जेल में न्यूनतम सुविधाओं से वंचित रखा गया था और पिछले साल ही उनकी मौत हुई है, जो हिरासत में हत्या से कम नहीं है।

इस हफ्ते, आर्सेनल कंसल्टेंट्स नामक एक प्रसिद्ध और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त फोरेंसिक जांच एजेंसी ने पाया है कि 2017 से 2019 के बीच फादर स्टेन स्वामी द्वारा उपयोग किए गए कंप्यूटर पर हैकर्स द्वारा 40 ऐसी फाइलें अपलोड की गई थीं ; जिसे उन्होंने बिल्कुल भी एक्सेस नहीं किया था। फोरेंसिक जांच में इस बात के भी पुख्ता सबूत मिले हैं कि पुणे पुलिस द्वारा उसकी गिरफ्तारी से एक दिन पहले, हैकर्स ने अपनी गतिविधि के सभी संकेतों को मिटाने की भी कोशिश की थी। यह दर्शाता है कि वे उनकी आसन्न गिरफ्तारी और उनके डिवाइस की जब्ती के बारे में जानते थे। यह मृत स्वामी और मामले में अन्य सह-अभियुक्तों के खिलाफ तथाकथित सबूतों को खारिज कर देता है। स्टेन स्वामी को कभी गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए था। यदि उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाता, तो वे आज जिंदा हो सकते थे।                        

इससे पहले दो अन्य अभियुक्तों द्वारा इस्तेमाल किए गए उपकरणों पर भी फोरेंसिक जांच की रिपोर्ट ने कुख्यात पेगासस स्पाइवेयर से जुड़ी तकनीक का उपयोग करके कथित मेलों को डालने का खुलासा किया था, जिसे तब उनके खिलाफ "सबूत" के रूप में इस्तेमाल किया गया था। पूरे मामले का आधार इन नकली प्लांटेड मेलों पर टिका है, जिनके बारे में अभियुक्तों को पता ही नहीं था और जिन तक उन्होंने कभी पहुंच नहीं बनाई। इन सभी नकली मेल और अन्य सामग्री के आधार पर इन अभियुक्तों को देशद्रोही, शहरी नक्सलियों के रूप में गाली दी गई है, पेशेवरों के रूप में -- उनमें वकील, प्रोफेसर, लेखक, कलाकार हैं -- उनकी प्रतिष्ठा को क्रूरता और बेहूदगी से कलंकित किया गया है। 

नागरिक स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के लिए न्यूनतम चिंता वाली कोई भी लोकतांत्रिक सरकार फोरेंसिक रिपोर्ट को गंभीरता से लेगी, निष्पक्ष जांच करेगी और कम–से–कम आरोपी को जमानत पर रिहा करेगी। इसके बजाय, एनआईए और केंद्र सरकार ने इन रिपोर्टों को पूरी तरह से नज़रअंदाज कर दिया है, जो हाल के इतिहास के सबसे बड़े षडयंत्र में से एक है। यह भारत को एक समृद्ध और जीवंत लोकतंत्र के रूप में पेश करने के साथ कैसे मेल खाता है?             

अगर भीमा कोरेगांव मामले में ऐसा हो सकता है, तो इस ऑपरेशन के लिए जिम्मेदार एजेंसियों को विपक्षी नेताओं के उपकरणों में सामग्री हैक करने और प्लांट करने के लिए उसी तकनीक का इस्तेमाल करने से क्या रोका जा सकता है?   फोरेंसिक जांच के निष्कर्ष सार्वजनिक डोमेन में हैं। न केवल भारत में, बल्कि दुनिया भर के समाचार पत्रों में रिपोर्टें प्रकाशित की गई हैं।  

क्या एक "समृद्ध और जीवित लोकतंत्र" में नकली सबूतों के आधार पर महिलाओं और पुरुषों को कैद किया जा सकता है? क्या ऐसा लोकतंत्र फिल्म निर्माताओं और कलाकारों के खिलाफ धमकियों और डराने-धमकाने को जगह दे सकता है? ये ऐसे सवाल हैं, जो भारत और उसके नागरिकों के सामने हैं, जिन्हें जी-20 से संबंधित इवेंट मैनेजमेंट के धूम–धड़ाकों के शोर में दबाया नहीं जा सकता है।         

*(बृंदा करात माकपा की पोलित ब्यूरो सदस्य और राज्यसभा की पूर्व सदस्य हैं।)*

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