रचना। पटरी,लालटेन और हमारा बचपन.....

बचपन में....जब तक....
पटरी-दूधिया वाली पढ़ाई पढ़ी,
कभी पटरी पर पढ़ाई नहीं चली...कभी हम लड़े तो कभी आपस में
पटरी लड़ाई गई.....घर आई शिकायतों पर..हर बार..
हमारी जमकर पिटाई हुई...
संयोगवश....अगर....! अगली कक्षा में पहुँचने पर,
पटरी सुरक्षित रह जाती तो...
यही पटरी अब काम आती थी
रात में पढ़ने के समय
लालटेन रखने के लिए.....मित्रों...रात वाला समय तो
लगभग ठीक रहता....
भोर में लाख जतन के बाद भी
गाड़ी पटरी से उतर ही जाती...नींद के मारे लालटेन गिर ही जाती
पटरी कहीं एक ओर तो
लालटेन दूसरी ओर नजर आती...इसी समय लालटेन भी, 
भभक जाती और गर्म हो जाती...
मित्रों क्या कहूँ....इसी गर्मी में...अक्सर पिताजी भी लाल हो जाते
फिर पीठ पर वही पटरी बजाते...लालटेन का नाजुक सीसा,
ग़र कभी टूट जाता-चिटक जाता
मतलब साफ था...डाँट खाना....डाँट-डपट तक तो ठीक थी
पिटाई के डर से.....
आज भी हमें याद है,
उन दिनों माँ से लिपट जाना....लालटेन भी न...उन दिनों...
अनोखी चीज थी....ज्यादा हिलने ना पाए,
तेल ज्यादा ना हो जाए
बाती बड़ी ना हो जाए,
बर्नर भभक न जाए.....इतनी सावधानियों के बाद
जला करती थी....लालटेन....!
जनरेटर,बैटरी,लाइट,
इनवर्टर के इस दौर में....आज के बच्चे शायद....!
विश्वास भी नहीं करेंगे कि
हमारा बचपन....
ऐसे अभावों में बीता था,
बताने पर भी उपहास ही करेंगे
कि उन दिनों...रात में हम....लिखते नहीं थे....!
केवल पढ़ते थे...याद करते थे....
लालटेन की रोशनी में....
रही बात पटरी की तो...इसी पटरी को गोद में रखकर
हम सुबह सुलेख लिखा करते थे
पटरी और लालटेन...!
मित्रों....संयोगवश दोनों....अब अतीत की यादें हैं....
पर भला कैसे भूल सकते हैं
हम इनको....! इनसे तो....
जुड़ी हमारी सुनहरी यादें है...
इन्हें भूल जाना बेईमानी है....क्योंकि....बिना इनके......
अधूरी बचपन की हर कहानी है...
अधूरी बचपन की हर कहानी है...

रचनाकार....
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद--कासगंज

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