सड़क छाप
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घर से कुछ ही दूर आया था कि सड़क के खड्डों में हिचकोले खाती मोटर सायकिल खड्डों के कचट से पंचर हो गयी । अब पंचर मोटर साइकिल खींचना ही नियति थी।

 मेरे गांव से जो सड़क शहर की तरफ गयी है, भारत के अन्य गावों की सड़कों से भिन्न नही है। माननीय प्रधानमंत्री जी ने कभी कहा था कि सड़कें ऐसी हों कि उनसे आप प्रगति आंके। लेकिन बन रही सड़कें छः माह में ही अपनी खोयी हुयी गरिमा पुनः पा लेती हैं। कहीं पढ़ा था कि सड़क का इतिहास व्यक्ति के प्रथम बार घर से निकलने से जुड़ा है। इतना समय बीत गया पर सड़क छाप की गरिमा आजतक बनी ही है।बिहार के एक बड़े नेता ने कभी चुनावी भाषण में कहा था कि 'सत्ता में आते ही सड़कों को फलां सिने तारिका के गाल जैसी चिकनी बना दूंगा।' गनीमत है कि भारत वर्ष में चुनावी भाषण को हकीकत में जुमला कहा जाता है।जो कभी पूरा नही होता। सोचो, अगर सच में उन्होंने सड़कों को इतनी चिकनी बना दी होतीं तो 'सड़क छाप लल्लू, सड़क छाप मजनू, सड़क छाप हीरो ' जैसे शब्द युग्म आज कहां होते?

सड़क के खड्डों से 'सड़क छाप' का अस्तित्व तो बचा  रह गया लेकिन खड्डों में फंसकर गिरने से मेरे सुंदर और मजबूत पैर की हड्डी चटक गयी। अब कुछ दिनों‌ सिर्फ आराम करना था। और तब पहली बार पैरों की सार्वभौमिक क्रियाशीलता पर मनन किया।

पैरों की अपनी सांस्कृतिक/सामाजिक चेतना है। ये पैर ही हैं, जिन्होंने रावण के सामने पांव जमा कर अंगद का रुतबा बढ़ाया था। जब बहुरिया के पांव भारी होते हैं तो घर की गुड़ियाओं के पांवों में पैजनियां बंध जाती हैं।अगर बाबा गोस्वामी ने कभी "ठुमुक चलत राम चन्द्र बाजत पैजनिया" गाया था तो वहीं पढ़ीस ने लिखा "पायल पहिरे विटिया नाचै सनई कै झुनझुनिया,देख करेजा बित्तन बाढ़ै यह किसान की दुनिया।"

जनवासे की चाल से लेकर नौ दो ग्यारह होने तक की इन पैरों की अपनी विकास यात्रा है। जब इन पैरों में बिल्ली बंध जाती है तो डिफेंस में तुरंत "जाके पांव न फटी बिवांयी ते का जाने पीर परायी" सामने आ जाता है। पर यदि हम जरा सा असावधान हुये तो ठोकर भी पैरों में ही लगती है।

मेरे गाँव की मिट्टी बड़ी उर्वर है। गाँव में इंजीनियर, डाक्टर, वकील, पत्रकार, प्रोफेसर, आई० पी० एस०, एच० जे० एस०, कवि, लेखक ,अभिनेता यदि हैं तो एक बिरादरी नेता, कैसे छूट जाती..? मेरे गाँव में नेता भी हैं। पिछली सरकार में तो राज्यमंत्री  भी थे मेरे गाँव से। नेता इतने जमीनी हैं कि नेतागीरी के बाद वे बड़े काश्तकार बन गये,पर सड़क छाप की गरिमा बचाये रखने के लिये आज तक सड़कों को खड्डों से मुक्त नही होने दिया। और सड़क छाप की गरिमा आजतक बदस्तूर बनी हुई है।


                    राजेश ओझा
               मोकलपुर गोण्डा उ०प्र०

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