#उस_एक_सुबह_के_बाद

 

घर के सारे काम निपटाने में शाम हो गई, तब कहीं रमा को राहत की सांस लेने के लिए कुर्सी पर कमर टिकाने की फुर्सत मिली, लेकिन उसकी किस्मत में आराम कहां – चैन से दो मिनट भी पलकें नहीं मूंदी थीं कि मोबाइल बज उठा।

-    ‘हां दीपू! बोलो।’

-    ‘मैं कल सुबह आठ बजे तक पहुंच जाऊंगी। अच्छा, अखिलेश अंकल को बुला लेना। उनसे जरूरी काम है।’

‘लेकिन दीपू...।’ रमा और कुछ कह पाती, उससे पहले ही फोन कट चुका था। आजकल के बच्चे किसी की सुनते ही कहां हैं!

20 साल की अल्हड़ बेटी दीपू यानी दीपाली की मां रमा की अपनी उम्र भी ज्यादा नहीं थी – महज 42 साल। क्रूर नियति ने मांग का सिंदूर मिटाकर उसे वक्त से पहले गंभीर बना दिया था। उसकी कमर ज़िम्मेदारियों का बोझ ढोते-ढोते झुकने लगी थी। वो जानती थी कि सहानुभूति जताने वाले बहुत मिल जाएंगे, लेकिन ज्यादातर स्वर छल भरे होंगे।

19 साल की थी रमा, जब ब्याह कर चंदवरपुर आई थी। पति नीलेश तीन भाइयों में सबसे छोटे थे और एक निजी कंपनी में ठेकेदार के असिस्टेंट के रूप में काम किया करते। बाकी दोनों बड़े भाई पुरखों की खेती-बारी में जुटे थे। परिवार में कलह न हो तो कम पैसों में भी खुशहाल जीवन जिया जा सकता है। अंदर ही अंदर भले खींचतान हो, लेकिन ऊपरी तौर पर भाइयों और बहुओं में इतनी तो बनती थी कि घर को शांतिप्रिय होने का तमगा मिल सका था।

और शादी के चंद साल बाद, उस दिन, जब रमा ने नीलेश को बताया कि वे पापा बनने वाले हैं तो सबकी खुशी का ठिकाना न रहा। घर में पूड़ियां छानी गईं, पकवान बने, लेकिन अफसोस... खुशी चंद दिनों की मेहमान साबित हुई। बिटिया के जन्म के पांच दिन बाद रमा के पति और ससुर सड़क दुर्घटना में मारे गए। अब वही बेटी, कल तक जिसके आगमन में खुशियों भरे गीत गाए जा रहे थे – यकायक मनहूस कही जाने लगी। रमा को भी अपनत्व मिल रहा था, क्योंकि पति की बाहरी आमदनी थी, जो सास और जेठानी पर न्योछावर हो रही थी। दुर्घटना के साथ सबकी आंखों के रंग बदल गए। बच्ची को कोई फूटी आंख नहीं देखना चाहता था। सास ने बाकायदा घोषणा कर दी- ‘इस मनहूस को मुझसे दूर ही रखना। पैदा होते ही मेरे बेटे और पति को खा गई।'

मंझले जेठ ने बात संभालने की कोशिश की – ‘अम्मा! इसमें नन्हीं का क्या दोष? बहू वैसे ही दुखी है, ऊपर से आप और रुला रही हैं।’ रमा मंझले के प्रति कृतज्ञता से भर गई। हालांकि उसी रात भ्रम टूट गया। देर रात मंझले जेठ की घर वापसी हुई तो किरदार बदला हुआ था। महिलाओं की छठी इंद्रिय नकली और असली हमदर्दी में तुरंत फर्क कर लेती है। मंझले ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला भर था कि रमा ने जेठ को समझा दिया- `दादा! पहली और आखिरी बार बता रही हूं। दीदी का घर न उजड़ने पाए, इसलिए छोड़ रही हूं, नहीं तो...।' रमा की आंखों से आग बरस रही थी। उसने तेज निगाह से मंझले को घूरा और चुपचाप अपने कमरे में जाकर जमीन पर पड़ गई। सारी रात घर की मिट्टी उसके आंसुओं से गीली होती रही, लेकिन रमा की आह समझने वाला वहां कोई न था।

इत्तेफाक – सुबह होते ही पिता समधी-घर आ गए। रमा ने पूछा– 'क्या बात है बाबू जी, कहिए।'  पिता का गला भर आया- 'चल बेटा, घर चल। यहां नहीं रह पाएगी तू।'

रमा ने साफ मना कर दिया, बोली- 'मुझे यहीं रहने दो। कुछ दिन मायके में पूरा मान मिलेगा, फिर भाई-भाभी की दया ही हाथ आएगी। दया के बदले अभाव का जीवन श्रेष्ठ होता है पापा।'

विवश पिता लौट गए। वे जानते थे, जिन संस्कारों के बीज डालकर उन्होंने रमा के व्यक्तित्व की फसल तैयार की है, उन्हें बेटी कभी उजाड़कर फेंक नहीं सकती।

पिता के जाने के बाद रमा ने किसी से बीती शाम के बारे में कुछ ना कहा, लेकिन गांव-कस्बे की महिलाएंना जाने कैसे जान लेती हैं कि कुछ ऐसा है, जो सामान्य नहीं है। होना ये चाहिए था कि सब स्त्रियां मिलकर रमा का साथ देतीं, लेकिन ना जाने क्यों, किसी ने रमा के कंधे पर भरोसे का हाथ न रखा।

वक्त बीता, प्रधान की पहल पर रमा का हिस्सा अलग कर दिया गया। नन्हीं प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने लगी और फिर एक दिन– सास और जेठानियों ने देखा कि रमा 'आशा बहू' का काम पूरा कर घर लौट रही है। प्रधान ने यहां भी रमा की मदद की थी। उसे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में छोटी-सी नौकरी मिल गई थी।

रमा ने घर की देहरी क्या लांघी,  तूफान आगया। मंझले जेठ ने यथाशक्ति अपमान किया। मंझली जेठानी ने पति का पूरा साथ दिया। हर तरफ से रमा पर व्यंग्य वाण चल रहे थे, लेकिन वो चुप रही, जैसे पत्थर का टुकड़ा हो।

ये सब हर दिन की बात हो गई। कभी मन बहुत भर जाता तो स्वास्थ्य केंद्र से छुट्टी लेकर दीपू के स्कूल चली जाती। मां-बेटी बाग में बैठकर एक-दूसरे से बातें करतीं। दीपू भला क्या समझती और रमा भी दिल की बात उससे कहां कह पाती, लेकिन कुछ था, जो बिना कहे-सुने दोनों तक बराबर पहुंच रहा था। 

 

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बीस साल बाद,  दीपू आज फिर बातें कर रही थीं, लेकिन सामने मां रमा नहीं थी, बल्कि हमउम्र साथी था – विभव। इन दिनों पटना की एक बड़ी कंपनी में सिस्टम एनालिस्ट के रूप में कार्यरत् दीपू गृह जनपद जाने से पहले विभव से जैसे सबकुछ तय कर लेना चाहती थी। ना जाने, क्यों उतावली थी, जबकि ये सफर विभव उसके साथ ही तय करने वाला था। दीपाली ने रमा को भी विभव के बारे में सबकुछ बता दिया था।

- 'विभव! मैं जानती हूं, तुम सोच रहे कि दीपाली ने प्रपोज किए जाने के बाद चुप्पी क्यों साध ली तो सुनो। क्या मुझे हां में जवाब देकर बताना होगा कि मैं तुमसे प्यार करती हूं और शादी करना चाहती हूं? '

-  'नहीं दीपू, नहीं! फिर भी।'

-    'विभव! विवाह तो हम करेंगे ही लेकिन मेरी एक शर्त है।'

- ' हमारा रिश्ता तो शर्तों से परे होना चाहिए दीपाली। शर्तों पर टिके संबंध कमजोर माने जाते हैं।'

-   'समझती हूं पर दिल से मजबूर हूं। सुनो, हम मम्मी को साथ रखेंगे।' 

विभव मुस्करा दिया। बोला- 'पागल... ये कोई शर्त हुई। वो हमारी मां हैं। हमारे साथ ही रहेंगी, लेकिन मैंने कुछ और सोच रखा है।'

'क्या...?',  दीपाली की उत्सुकता का ठिकाना ना था। विभव ने उसके कानों में कुछ कहा, जिसे सुनकर वो खुशी से झूम उठी। तभी ट्रेन की सीटी बजी। दोनों झटपट डिब्बे में चढ़ गए।

 

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रात रमा की आंखों में कटी। सुबह होते ही दीपू विभव के साथ नए घर के सामने थी। बीते वर्षों में रमा ने ग्राम समाज की जमीन पर अलग से घर बनवा लिया था। स्वार्थी ससुरालवालों के व्यंग्य वाणों से वो दूर रहना चाहती थी। दीपू रमा के गले लग गई, विभव ने पैर छुए। मां दो कप चाय ले आई, तभी दरवाजे पर अखिलेश की मोटरसाइकिल रुकी। अखिलेश, यानी दीपाली के क्लास टीचर, जिनकी देखरेख में दीपू ने पहली से इंटर तक की पढ़ाई की। वो जब तक उच्च शिक्षा हासिल करने पटना नहीं चली गई,तब तक उनके दिशा-निर्देश पर ही कदम बढ़ाती रही।

-  'क्या दीपू। अपने सर को चाय नही पिलाओगी?'

दीपाली ने तुरंत गुरु जी के पांव छुए और विभव से भी ऐसा ही करने को कहा। अखिलेश ने खिली हुई हंसी के साथ विभव का स्वागत किया। कुछ देर चुप्पी छाई रही, फिर दीपाली ने कहा, 'सर! ये विभव है। मेरा कलीग। विभव और मैं, शादी करना चाहते हैं।'

अखिलेश की खुशी का ठिकाना ना रहा। वे बोले, 'बिल्कुल। इससे ज्यादा खुशी की बात क्या होगी! कब कर रहे हो ये शुभ पहल? '

-  'जब आप दोनों चाहेंगे!'

-  'हम दोनों! मतलब?'

-   'मतलब ये कि गुरु जी. मम्मी और आप, दोनों शादी कर लीजिए। उन्हें दो बोल बोलने वाला मिल जाएगा और हमें जीवन भर का संतोष।'

दीपाली ने बड़ी सरलता से अपनी बात कह दी, लेकिन असर तेजी से हुआ। अखिलेश और रमा ने 'न...न... ऐसा संभव नहीं है' कहते हुए इनकार में सिर हिलाया। दीपाली के होंठों पर मुस्कान थी। वो बचपन से जानती थी कि उसके सिवा कोई और भी है, जिसे रमा की पीड़ा का एहसास है... वे उसके गुरु अखिलेश हैं। हालांकि अखिलेश ने कभी रमा से सांत्वना का एक शब्द नहीं कहा, न मदद का हाथ बढ़ाया, लेकिन जब भी घर को कोई जरूरत होती, सामने खड़े मिलते।

दीपाली ने तेज स्वर में कहा- 'मां... आप जैसी बहादुर महिला समाज से कैसे डर सकती है। सच बताओ कि अखिलेश सर आपको अच्छे इंसान नहीं लगते?'

रमा बोली- 'इनके बारे में कोई गलत बात मत करना। ये तो भगवान जैसे ही हैं। कम उम्र में पत्नी का निधन हो गया था, लेकिन कभी-किसी ने इन पर सवाल नहीं उठाया।'

अब विभव की बारी थी - 'आपने एक मां के सारे कर्तव्य पूरे किए। अब अपने अंदर की स्त्री का फर्ज निभाइए। एक बात समझिए- जीवन जड़ नहीं है। इसमें परिवर्तन न लाया जाए तो चट्टान और इंसान में क्या फर्क बचेगा।'

दीपाली ने फिर मोर्चा संभाला- 'कोई बात नहीं। आप दोनों न मानेंगे तो मैं भी शादी नहीं करूंगी।' रमा और अखिलेश अब अवाक रह गए। अब कल का दिन इतिहास में दर्ज होगा, जब कचहरी में मां-बेटी की शादी एक साथ होगी।
 #राजेश_ओझा मोकलपुर गोण्डा

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