मथुरा।।
उत्तर-प्रदेश के मथुरा जिले के वृन्दावन नगर में स्थित ठाकुर बाँके बिहारी मन्दिर की अत्यधिक मान्यता है। यह अत्यंत प्रतिष्ठित व लोकप्रिय मन्दिर है। इस मंदिर के दर्शन करने हेतु अपने देश के प्रत्येक कोने से विभिन्न जाति-सम्प्रदाय के हजारों व्यक्ति प्रतिदिन यहां आते हैं। वृन्दावन की सभी सड़कें व गलियां बाँके बिहारी मंदिर को जाती हैं। वस्तुतः समूचा वृन्दावन बाँके बिहारी जी महाराज से ही आपूरित है।  बिहारी जी के दर्शनों के बगैर वृन्दावन की यात्रा अधूरी मानी जाती है। प्रायः सभी वृन्दावन वासी नित्यप्रति बिहारी जी के दर्शन करते हैं। 
 रसिकनृपति स्वामी हरिदास जी महाराज वृन्दावन के निधिवन में लता-कुंजों से लाड़ लड़ाया करते थे। साथ ही वह अपना दिव्य संगीत यहां के लता-पादपों और उन ओर बैठ कर कलरव करते खग-शावकों व उनके साथ क्रीड़ा करने वाले प्रिया(राधा)-प्रियतम(कृष्ण) को सुनाया करते थे। बताया जाता है कि जब स्वामी हरिदास सखी भाव से विभोर होकर अपने आराध्य राधा-कृष्ण की महिमा का गुणगान करते थे तो वह इनकी गोद में आकर बैठ जाते थे। एक दिन स्वामी जी के शिष्य विट्ठल विपुल ने हरिदास जी महाराज से कहा कि आप जिन प्रिया-प्रियतम का केवल स्वयं दर्शन करके स्वर्गिक आनन्द प्राप्त करते हैं, उनके साक्षात दर्शन आप हम सब लोगों को भी कराइये। अतः स्वामी हरिदास जी ने प्रिया-प्रियतम का यह केलिगान
गाया : 
"माई री सहज जोरी प्रगट भयी", "जुरंग की गौर-स्याम घन दामिनि जैसे....।" 
इस पद का गान पूरा होते ही निधिवन में एक लता के नीचे से अकस्मात एक प्रकाशपुंज प्रकट हुआ। और उसमें से एक दूसरे का हाथ थामे प्रिया-प्रियतम प्रकट हुए। इस घटना के बाद स्वामी हरिदास अत्यंत सुस्त हो गए। भगवान श्रीकृष्ण ने जब उनसे उनकी इस उदासी का कारण पूछा तो स्वामी जी ने कहा कि मैं सन्त हूँ।मैं आपको तो लँगोटी पहना दूँगा किन्तु राधारानी को नित्य नए श्रृंगार कहाँ से करवाऊंगा। हरिदास जी के यह कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने यह कहा कि तो चलो हम दोनों एक प्राण और एक देह हो जाते हैं। और वह दोनों उसी समय एक विग्रह में परिवर्तित हो गए। स्वामी जी ने इस विग्रह का नाम ठाकुर बाँके बिहारी रखा और प्रकट हुए स्थान को "विशाखाकुण्ड" नाम दिया। यह घटना सम्वत 1567 की माघशीर्ष शुक्ल पंचमी की है। कालांतर में यह दिन बिहार पंचमी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। स्वामी हरिदास निधिवन में बिहारी जी के विग्रह की नित्यप्रति बड़े ही विधि-विधान से सेवा-पूजा किये करते थे। बताया जाता है कि ठाकुर बाँके बिहारी जी महाराज की गद्दी पर स्वामी जी को प्रतिदिन 12 स्वर्ण मोहरें रखी हुई मिलती थीं। जिन्हें वह इसी दिन बिहारी जी का विभिन्न प्रकार के व्यंजनों से भोग लगाने में व्यय कर देते थे। वह भोग लगे व्यंजनों को बंदरों,मोरों,मछलियों और कच्छपों आदि जीव-जन्तुओं को खिला दिया करते थे। जबकि वह स्वयं ब्रजवासियों के घरों से मांगी गई भिक्षा से ही संतुष्ट हो लेते थे। बाद को उन्होंने ठाकुर बाँके बिहारी की सेवा का कार्य अपने अनुज जगन्नाथ को सौंप दिया। बिहारी जी के विग्रह को लगभग 200 वर्षों तक स्वामी जी द्वारा बताए गए तरीके से निधिवन में पूजा जाता रहा। कालांतर में भरतपुर की महारानी लक्ष्मीबाई ने उनका अलग से मन्दिर बनवाया। किन्तु यह मंदिर बिहारी जी के सेवाधिकारियों को नही भाया।अतः उन्होंने भरतपुर के राजा रतनसिंह द्वारा प्रदत्त भूमि पर बिहारी जी के भक्तों का सहयोग लेकर सम्वत 1921 में दूसरा मन्दिर बनवाया, जहां पर कि आजकल ठाकुर बाँके बिहारी जी महाराज विराजित हैं।
"बाँके" शब्द का अर्थ होता है टेड़ा। बाँके बिहारी का विग्रह कन्धा,कमर और घुटने के स्थान पर झुके होने के कारण "बाँके" नाम से जाना जाता है। इस विग्रह में प्रिया(राधा)  तथा प्रियतम(कृष्ण) दोनों के समान दर्शन होते हैं। मन्दिर में एक-एक दिन के अंतराल पर बिहारी जी का कभी राधा के रूप में तो कभी श्रीकृष्ण के रूप में श्रृंगार होता है। उनकी सेवा अत्यंत अनूठी व भावमय है। ठाकुर बाँके बिहारी मंदिर के सेवाधिकारी आचार्य अशोक गोस्वामी बताते हैं कि बिहारी जी की सेवा एक शिशु की तरह की जाती है। एक बालक की तरह ही बिहारी जी का जागरण देर से तथा शयन जल्दी हो जाता है। इस सम्बंध में उनका तर्क यह भी है कि उनके ठाकुर नित्य रात्रि में रास कर प्रातः काल शयन करते हैं। अतैव उन्हें सुबह जल्दी जगाना उचित नहीं है। इसी कारण उनकी मंगला आरती वर्ष भर में केवल 1 बार जन्माष्टमी की अगली सुबह को होती है। बिहारी जी को थोड़े-थोड़े समय के अंतर पर विभिन्न भोग अर्पित किए जाते हैं।इन भोग पदार्थों में एक बच्चे की रुचि का पूर्णतः ध्यान रखा जाता है। आचार्य जी बताते हैं कि अधिकांश शिशुओं को रात्रि में भूख लगती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्हें रात्रि को शयन कराते समय उनके सम्मुख भोग में बूंदी के लड्डू,पान की गिलौरी, पूड़ियाँ तथा दूध आदि रख दिया जाता है। इसके अलावा उनसे सम्बंधित सभी आवश्यक वस्तुएं भी उनके पास रख दी जाती हैं। क्योंकि पता नहीं उन्हें कब किस वस्तु की आवश्यकता पड़ जाए। यह आश्चर्य ही है कि प्रत्येक सुबह मन्दिर के पट खोलने पर मन्दिर के सेवाधिकारियों को रात्रि को रखे गए बिहारी जी के भोग की मात्रा कम और आवश्यक वस्तुएं बिखरी हुई मिलती हैं। बिहारी जी को जब राजभोग व शयन भोग लगाये जाते हैं तब उनके सेवायत उनसे सम्बंधित पद भी गाते हैं। रात्रि में बिहारी जी को शयन कराने से पूर्व उनकी उनके सेवायतों द्वारा इत्र से भलीभांति मालिस भी की जाती है। बिहारी जी की आरती के समय घण्टे-शंख तो दूर ताली तक बजाना वर्जित है।क्योंकि उनकी उपासना प्रेम की निर्जन उपासना है। बिहारी जी के नित्य नवीन श्रृंगार होते हैं। उनका किस दिन, क्या श्रृंगार होगा यह पूर्व निश्चित रहता है। ठाकुर बाँके बिहारी जी महाराज इच्छाओं के कल्पतरु हैं। उनका स्मरण कर जो भी अभिलाषा की जाए वह निश्चित ही पूरी होती है। इसीलिए उनके दर्शनार्थ वर्ष भर प्रतिदिन भक्त-श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। उनके करोड़ों भक्त हैं। वह दिव्यातिदिव्य प्रेम के स्वरुप हैं। 
ठाकुर बाँके बिहारी जी महाराज के एक नही अपितु अनेकानेक चमत्कार हैं। जो कि पुस्तकाकार रूप कई खण्डों में प्रकाशित हो चुके हैं।ठाकुर बाँके बिहारी मन्दिर के कई गोस्वामीजन बताते हैं कि एक बार भक्तिमति मीराबाई ने जब बिहारी जी के दर्शन के समय उन्हें एकटक निहारा तो वे उनके प्रेमपाश में बंधकर उनके साथ चलने लगे। इस पर सेवाधिकारियों के अत्यन्त आग्रह पर मीराबाई ने बिहारी जी को वापिस किया। तभी से उनके दर्शन झरोखे से कराए जाते हैं। उनके दर्शन के समय थोड़े-थोड़े अंतर पर बिहारी जी के सम्मुख पर्दा लगाया व हटाया जाता है, जिसे पटाक्षेप कहते हैं। ताकि भक्तगण उन्हें एकटक न देख सकें। संतप्रवर रामकृष्ण परमहंस जब एक बार बिहारी जी के दर्शन कर रहे थे तब उन्हें यह लगा था कि वे उनको अपने पास बुला रहे हैं। अतैव वह भावावेश में आकर उनका आलिंगन करने के लिए दौड़े थे। बिहारी जी एक बार करौली स्टेट (जयपुर) की रानी के प्रेम से वशीभूत होकर स्वयं वृन्दावन से करोली जाकर उनके महल में जा विराजे थे। बाद को उन्हें उनके सेवाधिकारियों के अथक प्रयासों से किसी प्रकार भरतपुर और फिर वृन्दावन वापिस लाया गया। इसीलिए करोली व भरतपुर में आज भी ठाकुर बाँके बिहारी जी महाराज के मंदिर हैं। 

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