नव सृजन से हो नव-वर्ष का अभिनंदन    

-विनोद बंसल

राष्ट्रीय प्रवक्ता-विहिप

     भारत व्रतपर्व व त्योहारों का देश है। यूं तो हम हर दिन को पावन मानते हैं। महापुरुषों की मृत्यु के दिनों पर भी हम छाती पीटते या शोक व्यक्त करने के स्थान पर उसे पुण्य तिथि के रूप में मनाते हुए कुछ नव-संकल्पों के साथ उनके बताए मार्ग पर चलने की प्रेरणा लेते हैं। हम सदैव उत्कर्षप्रकाशप्रगतिधर्म तथा विश्व-कल्याण मार्ग के अनुगामी हैं। नकारात्मकता का किसी भी भारतीय पर्व या त्योहारों में कोई स्थान है ही नहीं। नव वर्ष भी तो एक नव सृजन का ही संदेश लेकर आता है। कुछ नया होता है तभी तो उसे नया वर्ष कहते हैं। जब नया आता है तो उसका स्वागत भी तो धूम धाम से होना ही चाहिए।

     इस धूमधाम का वास्तविक अर्थ क्या! नव वर्ष के स्वागत के लिए कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे हर मन में सात्विक नव ऊर्जा का संचार हो। हमारे संस्कार व संस्कृति कहती है कि हम नवागंतुक का स्वागत दीप जलाकर, थाली सजा, आरती उतार कर करें। कुमकुमतिलक या टीका लगाकरस्वच्छ वस्त्र पहनकरपुष्पधूपदीपनैवेद्य आदि से घर को सुगंधित कर शंख व मंगल ध्वनि के साथ हवन-यज्ञसत्संग आराधना द्वारा प्रभु का गुणगान करें। प्रभात-फ़ेरियां निकालेंगऊओंसंतों व वरिष्ठ जनों की सेवा करसंतोंविद्वानोंकन्याओंनिराश्रितों तथा गौ माताओं को भोजन कराकर पुण्य लाभ कमाएं। भगवान के मंदिर जाएंगरीबों और रोगियों की सहायतावृक्षारोपणसमाज में प्यार और विश्वास बढ़ाने के प्रयासतथा शिक्षा का प्रसार जैसे कार्यों का संकल्प लें। इनके अलावा भी जीवन में उत्साह व आनंद भरने तथा आत्म गौरव बढ़ाने संबंधी अनेक अन्य प्रकार भी स्वागत व अभिवादन हेतु प्रयुक्त किए जा सकते हैं। इसके स्वागतार्थ जाम से जाम टकराने की जगह गौ-घृत के दीप-से दीप जलाकर हृदय से हृदय मिलाएं। बड़ों का तिरस्कार कर नहीं अपितु, उनका अनुशासन व आशीर्वाद पा कर करें नव वर्ष का स्वागत।

     विचारणीय बात यह भी है कि कोई भी पर्व या त्योहार तब तक भारतीय नहीं कहलाया जा सकता जब तक कि उसके मनाने से जीवन में नव उत्साह या आनंद का संचार ना हो कोई शिक्षा या संदेश ना हो। उसके पीछे कोई विचारआदर्श या ज्ञान-विज्ञान ना हो। काल गणना का प्रत्येक पल अपना विशिष्ट महत्व रखता है। किंतुभारतीय नव वर्ष (विक्रमी संवत) का पहला दिन (यानी वर्ष प्रतिपदा) अपने आप में अनूठा है। इसे नव संवत्सर भी कहते हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए इसी दिन सूर्यदेव का एक चक्कर पूरा करती है। दिन-रात बराबर होते हैं। चंद्रमा की चांदनी अपनी छटा बिखेरना प्रारंभ कर देती है। ऋतुओं के राजा वसंत के आगमन के कारण प्राकृतिक सौंदर्य अपने चरम पर होता है। फागुन के रंग और फूलों की सुगंध तन-मन को प्रमुदित कर देती है।

     विक्रमी संवत की वैज्ञानिकता भी उल्लेखनीय है। पराक्रमी सम्राट विक्रमादित्य द्वारा प्रारंभ किए जाने के कारण इसे विक्रमी संवत के नाम से जाना जाता है। इसे ईस्वी सन से 57 वर्ष पूर्व प्रारंभ किया गया। इस संवत के बाद से ही वर्ष को 12 माह का और सप्ताह को 7 दिन का माना गया। चंद्रमा के पृथ्वी के चारों ओर एक चक्कर लगाने को एक माह माना जाता हैजो कि वास्तव में 29 दिन का होता है। हर मास को दो भागों में बांटा जाता है। कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष। कृष्णपक्ष में चंद्रमा का आकार घटता है किन्तुशुक्लपक्ष में वह बढ़ता है। कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन (अमावस्या) चंद्रमा बिल्कुल दिखाई नहीं देता।  जबकिशुक्ल पक्ष के अंतिम दिन (पूर्णिमा) चन्दा मामा अपने पूरे यौवन पर होते हैं।  आधी रात के बदले सूर्योदय से दिन बदलने की व्यवस्थासोमवार के स्थान पर रविवार को सप्ताह का प्रथम दिवस मानना और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के स्थान पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही वर्ष को आरंभ करने का भी एक बड़ा वैज्ञानिक आधार है।

     इंग्लैंड के ग्रीनविच नामक स्थान से तारीख बदलने की व्यवस्था रात के 12 बजे से है। सोचिए! वह इसलिए है क्योंकि उस समय भारत में भगवान सूर्य की अगवानी हेतु प्रात: 5.30 बजे होते हैं। सप्ताह के वारों का नामकरण भी तो देखो कितना वैज्ञानिक है! आकाश में ग्रहों की स्थिति सूर्य से प्रारंभ करें तो हम पाते हैं कि ये सभी क्रमश: बुधशुक्रचंद्रमंगलगुरु और शनि हैं। पृथ्वी के उपग्रह चंद्रमा सहित इन्हीं अन्य छह ग्रहों पर सप्ताह के सात दिनों का नामकरण किया गया। एक और बाततिथि घटे या बढ़े किंतु सूर्य ग्रहण सदा अमावस्या को होगा और चंद्र ग्रहण सदा पूर्णिमा को होगा। इसमें अंतर हो ही नहीं सकता। तीसरे वर्ष एक मास बढ़ जाने पर भी ऋतुओं का प्रभाव उन्हीं महीनों में दिखाई देता है जिनमेंसामान्य वर्षों में दिखाई पड़ता है। वसंत के फूल चैत्र-वैशाख में तथा पतझड़ माघ-फागुन में ही होती है। यानिइस काल गणना में नक्षत्रोंऋतुओंमहीनों व दिवसों आदि का निर्धारण पूरी तरह प्रकृति पर आधारित है।

     जिस प्रकार ईस्वी संवत का संबंध ईशा मसीह से हैउसी प्रकार हिजरी संवत का संबंध पैगंबर हजरत मुहम्मद से है। किंतु विक्रमी संवत का आधार कोई व्यक्ति न हो कर प्रकृति और खगोलीय सिद्धांत हैं। इसीलिए हमारे यहां नव वर्ष का स्वागत रात के अंधेरे में नहीं बल्किसूरज की पहली किरण के साथ किए जाने की परंपरा है।

     इतने वैज्ञानिकखगोलीयधार्मिक सांस्कृतिक व आध्यात्मिक सम्पन्नताऐं तथा नवीनताऐं लिए भारतीय नव वर्ष को छोड़ सिर्फ अंग्रेजी अवैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर बने ईस्वी संवत को हम कब तक ढोते रहेंगे। वैसे भी जरा सोचिए! घर-परिवारव्यवसाय व समाज में कोई खुशी का अवसर हो यथा जन्म कासंस्कारों कागृह प्रवेश कायात्रा काशादी-विवाह इत्यादि कातो उसका शुभ मुहूर्त निकलवाने हम पंडित जी के पास जाते ही हैं ना! पंडित जी वह मुहूर्त भी तो इसी काल गणना के आधार पर निकालते हैंअंग्रेजी कलेंडर से नहीं। 

     आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने स्वाभिमानस्व-संस्कृति तथा स्वधर्म का पालन करते हुए नव-वर्ष को पूरी निष्ठा पूर्वक आत्मसात कर धूम-धाम से मनाएं और विश्वभर में वेदामृत का प्रकाश फैलाएं। यदि दूसरों के त्योहारों या मान्यताओं का साथ देने भर की बात हो तो उसमें भी अपनी मर्यादाओंसंस्कारों तथा नैतिक मूल्यों को कदापि ना छोड़ें। कुछ ना कुछ समाजोपयोगी या जन-कल्याणकारी कार्य का शुभारंभ अवश्य करें और रात्रि के अंधेरे के स्थान सूर्य की पहली किरण से करें उसका अभिनंदन। आखिर नव-सृजन से ही तो होना चाहिए नव-वर्ष का अभिनंदन!    

** लेखक विचारक व चिंतक के साथ विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता भी हैं। **  

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