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उत्तर प्रदेश की सियासी जमीन पर सत्तारूढ़ भाजपा भले ही बेहद मजबूत दिख रही हो, लेकिन राजनीतिक चुनौतियां कम नहीं हैं। खासकर कोरोना, किसान आंदोलन और महंगाई के मुद्दों को लेकर कोई भी दल पूरी तरह आश्वस्त नहीं दिख रहे हैं। सत्ता पक्ष के साथ विपक्ष की भी इसी तरह की चिंता है। सभी बड़े दलों को चुनावी वैतरणी पार करने के लिए छोटे दलों को साधना पड़ रहा है। छोटे दल भले ही जिलों तक सीमित हों, लेकिन उनका यह छोटा आधार बड़े दलों के लिए बड़ा संबल बन सकता है।

उत्तर प्रदेश में बीते चुनाव के दौरान 300 से ज्यादा सीटों का भारी-भरकम बहुमत लेकर आई सत्तारूढ़ भाजपा भी अपने सहयोगी दलों को साथ लेकर चल रही है। अपना दल और निषाद पार्टी के साथ उसने समझौता किया हुआ है। वह छोटे-मोटे नए सहयोगियों को भी साथ जोड़ने के लिए तैयार है। ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारत समाज पार्टी के साथ भाजपा की दूरी भले ही बढ़ गई हो, लेकिन कुछ समय पहले भाजपा भी उसके साथ चर्चा कर रही थी। राजभर अभी सपा के साथ हैं, लेकिन चुनाव तक कौन कहां होगा कहा नहीं जा सकता है।
दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी राजभर के साथ महान पार्टी को भी साथ लेकर चल रही है। इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) के साथ भी उनका चुनावी सहयोग रहेगा। इनके बीच में कांग्रेस पार्टी अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश कर रही है, लेकिन वह जमीन से ज्यादा माहौल में सक्रिय दिख रही है। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सक्रियता हमेशा की तरह जमीनी है। ज्यादा ताम-झाम उसमें दिखाई नहीं देता है। 

उत्तर प्रदेश में कोरोना की दूसरी लहर के बाद लोगों की समस्याएं बढ़ी हैं। वह ज्यादा प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं, लेकिन उनके अंदर एक आक्रोश जरूर हो सकता है। इसी तरह किसान आंदोलन की तासीर गर्म है। हाल की लखीमपुर खीरी की घटना ने इसमें आग में घी का काम किया है। इससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर तराई तक की राजनीति पर व्यापक प्रभाव पड़ने की संभावना है। महंगाई का एक ऐसा मुद्दा है जो सभी वर्गों को प्रभावित कर रहा है। यह चुनाव में किस करवट बैठेगा नहीं कहा जा सकता है। लेकिन आमतौर पर इससे सत्तापक्ष को ही नुकसान होता रहा है। ऐसे में भाजपा को अपनी सरकार बरकरार रखने के लिए एक-एक वोट तक पहुंच बनानी होगी, जिसमें उसकी अपनी ताकत के साथ सहयोगी दलों का पूरा सहयोग भी जरूरी है। भाजपा इस चीज को समझ भी रही है। 

छोटे दलों को नकार पाना आसान नहीं 
चुनावी रणनीतिकारों का मानना है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता के दोनों प्रमुख दावेदार सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी सपा को भले ही नतीजों में बड़ी सफलता मिले, लेकिन उसके पहले चुनावी रणनीति में छोटे दलों को नकार पाना उनके लिए संभव नहीं है। इसकी वजह मौजूदा राजनीतिक और सामाजिक हालात हैं।
भाजपा ने दो माह पूर्व की शुरू की थी कवायद
मालूम हो कि दो महीने पहले ही गृहमंत्री अमित शाह ने सहयोगी दलों को साधने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। तब उन्होंने अपना दल और निषाद पार्टी के साथ चर्चाएं की थी। बाद में अपना दल को केंद्र सरकार में शामिल भी किया गया था।

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