उतरौला(बलरामपुर)स्थानीय तहसील क्षेत्र स्थित राप्ती नदी के रेत में इस समय चारों तरफ हरियाली ही हरियाली है। 
राप्ती नदी के तटवर्ती गांव अल्लीपुर, भवनपुरवा, बिरदा बनिया भारी, रुस्तम नगर, कटरा, महुआधनी, मटयरियाकर्मा, बौड़िहार, गोनकोट, महुआ बाजार, फतेहपुर, हसनगढ़, भरवलिया, छीटजोत, नंदौरी, सोनहटिया के किसान रेत को खेत बनाकर इसमें लाखों रुपए कमा रहे हैं। यहां किसान खीरा, ककड़ी, लौकी, कद्दू ,करैला, तरबूज व खरबूजा पैदा कर रहे हैं। 
यहां किसान 3 माह की खेती से पूरे साल का खर्चा निकाल रहे हैं। राप्ती नदी में आई बाढ़ के समय कई ग्रामीण बेकार हो जाते हैं। खेतों में लगी फसल तबाह हो जाती है। लेकिन यह मात्र 3 महीने बरसात के समय ही होता है। इसके बाद राप्ती नदी की रेत सोना उगलने लगती है। रेत में किसान 3 माह के अंदर लाखों कमा लेते हैं। किसान राप्ती की रेत में सब्जी व फल उगाते हैं। इस फसल पर न तो किसी खाद की जरूरत है ना ही किसी कीटनाशक की। पानी भी नदी से मुफ्त मिल जाता है। खाद की आवश्यकता इसलिए नहीं होती कि बाढ़ के बाद पूरी रेट में गाद जमा होती है। जिसका लाभ किसान उठाते हैं। कहने को तो यह रेत है लेकिन बाढ़ के समय आई बाढ़ इसकी उर्वरा शक्ति बढ़ा देता है। इसलिए केवल किसानों को इस रेत में बीज डालने की आवश्यकता होती है। वहीं जब पानी की आवश्यकता होती है तो राप्ती नदी से पानी यहां पहुंचा दिया जाता है। कीटनाशक का उपयोग यहां ना के बराबर होता है। इसलिए पूरी पैदावार ऑर्गेनिक ही होती है। यहां एक पौधे से 50 से 100 फल तक मिल जाते हैं। हर पौधे से 3 दिन के बाद फल तोड़े जाते हैं। यहां लौकी तरबूज, खरबूज, लौकी, तरोई, करेला जैसी लता वाली सब्जियों और फलों की ही खेती होती है। राप्ती के किनारे खेती करने वाले किसानों का कहना है कि हर साल जब राप्ती का पानी घटने लगता है तो हम लोग रेत को खेती के योग्य बनाने लगते हैं। पहले रेत को बराबर कर जमीन को समतल बनाया जाता है। इसके बाद डेढ़ से दो फीट गहरी बड़ी बड़ी नालियां बनाई जाती है। इन नालियों में एक तरफ बीज बो दिए जाते हैं। 
तरबूज की फसल नवंबर दिसंबर में बोई थी। अप्रैल मई जून में फसल तैयार होगी। रेत में खेती करना मेहनत का काम है। लेकिन पैदावार अच्छी होती है।
असगर अली
 उतरौला 

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