राजकुमार गुप्ता
अब गांव बदले बदले से दिखने लगे हैं, आधुनिकता का प्रभाव देहातों में साफ़ साफ़ देखा जा सकता है। एक तरह से गांव अपनी पहचान खोते जा रहे हैं। पहनावे, खान पान और रहन-सहन में देहातों की जो अपनी विशिष्टता थी, जो सादगी थी, जो सरलता थी 
एक साथ रहना, तीज त्योहारों पर दुश्मनी भुलाकर एक साथ खुशियां मनाना इसकी जगह तड़क-भड़क ने ले ली है।
दरअसल कुछ सालों से जो सुविधाएं शहरों तक सीमित थीं वह अब गाँवों तक पहुंच चुकी हैं। गाँव में बिजली, पानी, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं पहुंची हैं, 
इससे एक तरफ ग्रामीण जीवन आसान हुआ है। वहीं दूसरी ओर गाँवों में प्रकृति के साथ जीने की जो जीवनशैली थी उससे आदमी दूर हुआ है। इस बदलाव से गांवों ने जहां एक ओर बहुत कुछ प्राप्त किया है वहीं दूसरी ओर नुकसान भी हुआ है।
मैं ब्रज की बात करूं तो गर्मियों मे भी लोग ठाली नहीं रहते थे। ठाली होने पर ढेंचा, पटसन का सन निकाल कर खाट, मचान, बच्चों के लिए खटोला, बैठने के छोटा सा पीड़ा खुद ही बना लेते थे, महिलाएं रजाई उधेडकर रुई से चरखे से सूंत कातती थीं, उसी सूंत से खोर आदि गांव के बुनकरों से बनवाए जाते थे। कूए से पानी लाती थीं इसलिए घर के बाकी सदस्य पानी कम से कम फैलाते थे। बच्चे से लेकर महिलाओं में मोटापा पास तक नहीं फटकता था। लड़किया फुर्सत में होने पर सिलाई,कढ़ाई, बुनाई करतीं थीं। पशुओं को भी छप्परों में बांध जाता था। जो गर्मियों में ठंडे रहते थे और सर्दियों में गर्म रहते थे -  उससे पशु दूध भी ज्यादा देते थे। आजकल पशुओं को टिन शेडों में रखने से बे गर्मियों में हीट स्ट्रेस के कारण परेशान रहते हैं, कम दूध देते हैं पहले शादी में लड़का लड़की को हल्दी का उबटन लगाया जाता था - उबटन के बाद लड़के लड़कियां की नेचुरल सुंदरता देखते ही बनती थी ! उस दौर में बच्चा 4--5 साल तक मां का दूध पीता था जो उच्च क्वालिटी की इम्यूनिटी बनाता था और आज ज्यादातर माताएं बच्चों को बोतल में दूध भरकर उसे मोबाईल पकड़ा देती हैं । एक समय था जब सँयुक्त परिवार में घर के सभी सदस्य प्यार से रहते थे, उनके अंदर धैर्य था। आज  स्थिति तेजी से बदली है, ताऊ चाचा दादा दादी की टोकाटाकी तो पल भर बर्दाश्त नहीं करते।  
अब न चौपालों पर रौनक दिखती है, न  और न ही गलियों में शोर मचाते बच्चे दिखाई देते हैं । बुजुर्गों को अपने अपने गाँव की बहुत सी बातें यादें होंगी, गर्मियों में नहर बंबा, तालाबों में कूद कूद कर नहाना। बच्चों का गगर्मियों की छुट्टियों में अपनी  ननिहालों में महीनों छुट्टी बिताना। अब न नहर बंबा में पानी आता है और तालाबों का पानी तो सड़ गए हैं। बच्चे ननिहालो में छुट्टियों में आने की बजाय दूसरी जगहों पर घूमना पसंद करते हैं। मुझे याद है जब मेरी दादी और नानी दूध को मिट्टी से बनी बरोसी में हड़िया में गर्म करती थीं । करीब 3 से 4 घंटे जब हड़िया में दूध गर्म होता था तब दूध के उपर मलाई की मोटी परत ऊपर आ जाती थी। इसके अलावा हड़िया में पाए जाने वाले मिनरल्स दूध में मिल हो जाते थे। इससे दूध की गुणवत्ता और स्वाद की बात निराली होती थी । हड़िया में दूध गर्म करने के बाद इसे मिट्टी के बर्तनों में ही जमाया जाता था तथा सुबह मिट्टी के बर्तनों में ही हाथों से रई द्वारा चला कर इसकी लौनी तथा मट्ठा तैयार किया जाता था। जो कि स्वाद और पोषण में अच्छा होने के साथ-साथ ही सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होता था। इतना ही नहीं रई से मट्ठा बिलोने वाली महिला का व्यायाम होने की वजह से उसका स्वास्थ्य भी बढ़िया रहता था। लेकिन आज गाँवों में दूध गर्म करने के लिए अलमुनियम-स्टील के बर्तन का प्रयोग किया जा रहा है, जिससे दूध दही में न तो स्वाद बचा है और न पहले जैसा पोषण बचा है। महिलाएं आटा भी जरूरत के हिसाब से हाथ की चाकी से पीसकर ताजे आटे से रोटी बनाती थी। गांवों की जीवन शैली की ये कुछ ऐसी बातें थी जिससे हमें शुद्ध खानपान तो मिलता ही था। इससे महिलाएं स्वस्थ, छरहरी रहतीं थीं। बड़े बूढ़े कहते हैं कि अगर गर्भवती महिलाएं हाथ से चलाने वाली  चाकी से आटा पिसतीं थीं उन्हें कभी  बड़े ऑपरेशन से बच्चा पैदा कराने की जरूरत नहीं पड़ती थी। 
आज गांवों में भी स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक चीजें चलन में आ चुकी हैं। दूध, दही, मठ्ठा,ठंडाई की जगह  फास्ट फूड, सॉफ्ट ड्रिंक्स ने ले ली है। चना, सत्तू देखने को नहीं हैं।  सुबह के समय नाश्ते (कलेऊ) के रूप में दही, मट्ठा, सत्तू गायब से हो चुके हैं। खाने में गुरचनी की रोटी, लोनी, दही, बाजरे की रोटी भी थाली से गायब सी हो गई हैं या कम हो गई हैं। चूल्हे की रोटी, लोहे की कड़ाही में बनी सब्जियां,  छप्पर-बिटोरा तथा बुर्जी पर लगी लौकी, तोरई, सेम आदि की सब्जी, गरम गरम कोल्हू का गुड़, राव और शक्कर का स्वाद  का जायका जिसने लिया है वही जानता है।
आजकल बच्चा पैदा होते ही मोबाइल फोन से लगा रहता है l लड़के हों या लड़कियां, महिलाऐं सबको मोबाइल की बीमारी लग गई है। घर में 10 सदस्य हैं तो 10 ही मोबाईल फोन हैं। इन सब का दुष्परिणाम कम उम्र में मोटापा बढ़ रहा है। वसा युक्त भोजन, अधिक चर्बीयुक्त आहार का सेवन करना, अनियमित जीवन शैली, सुबह देर तक सोना, फिजिकल एक्टिविटी न करना, घरेलू कामों से बेरुरूखी जैसी चीजों के कारण टीनेजर्स में मोटापा, तनाव, स्ट्रेस, एंजाइटी हो रही है। अत्यधिक मोबाईल के प्रयोग से लोग सोशल एंक्साइटी के शिकार हो रहे हैं। चिड़चिड़े हो रहे हैं, उनमें धैर्य की कमी हो रही है। आजकल घण्टे भी बिजली चली जाये तो हाय तौबा मच जाती है। मन मुताबिक वातावरण न मिलने के कारण तमाम नौजवान युवक व युवतियां नशे की चपेट में आ रहे हैं। तमाम युवा नशे के इतने आदी हो चुके हैं कि वे नशे की खातिर कुछ भी भला बुरा नहीं देख रहे  हैं। गांवों में हालत ये है कि मैड मैड पर शराब की खाली बोतलें, नमकीन की पन्नी, पानी के खाली पाउच आम हो गए हैं।

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