भारत में फेंकना एक मुहावरा भी है और एक कला भी। एक खेल के रूप में फेंकना विकसित हुआ था प्राचीन ग्रीस में। फेंकते तो हम भारतीय भी थे । महाभारत काल से अब तक हमने फेंकना नहीं छोड़ा। फेंकने के लिए दुनिया ने भाला ही इस्तेमाल किया । भाला फेंकना ओलिंपिक खेलों के साथ 708 ईसा पूर्व से जुड़ा है । पुरुषों के लिए 1908 से और महिलाओं के लिए 1932 से, यह आधुनिक ओलंपिक खेलों का एक घटक रहा है।हाल में फेंकना भारत के युवा खिलाड़ी नीरज चौपड़ा की वजह से दोबारा चर्चा में आया है।
हमने, आपने भाला महाराणा प्रताप की तस्वीरों के साथ देखा ह। भाला उस जमाने में आयुध का काम करता था जब बारूद का अविष्कार नहीं हुआ थ। भालायुग में सैनिकों के हाथ में तलवारें,धनुष-वाण होते थ। कहते हैं की राणा प्रताप के भाले का वजन 81 किलोग्राम का था। इतना वजनदार भाला उठाकर शत्रु पर वार करने के लिए कितनी शक्ति लगती होगी उसकी कल्पना करना कठिन है। आज जिस भाले से नीरज ने टोक्यो ओलम्पिक में भारत के लिए स्वर्ण जीता उसका वजन मात्र 800 ग्राम होता है । कहाँ 81 किग्रा और कहाँ 800 ग्राम।
भाला मूलत: एक आयुध है । मनुष्य ने इसे शिकार के लिए विकसित किया था किन्तु कालान्तर में भाला एक खेल के रूप में अंगीकार कर लिया गया । भाला चाहे खेल के लिए फेंका जाये चाहे शिकार के लिए इसका एक नियम है। खेलों में पुरुषों की भाला फेंक प्रतियोगिता के नियमों को 1986 में संशोधित किया गया था, गुरुत्वाकर्षण के केंद्र को चार सेमी आगे स्थानांतरित कर दिया गया था। अपनी नाक को पहले नीचे करके और तेज करके, यह फेंकने की दूरी को लगभग 10 फीसदी तक कम करने में सक्षम था। 104.80 में पूर्वी जर्मनी के 1984 मीटर के विश्व रिकॉर्ड के उवे होन के बाद, पुरुषों को विशिष्ट स्टेडियमों में अनुमत क्षेत्र से परे भाला फेंकने का खतरा था। 1999 में महिलाओं के भाले को भी संशोधित किया गया था।
नीरज चौपड़ा से पहले भी दुनिया में बड़े-बड़े भाला फेंकने वाले महारती पैदा हुए। चेकोस्लोवाकिया के एथलीट जान ज़ेलेज़नी को भाला फेंकने के इतिहास में सबसे बड़ा पुरुष भाला फेंकने वाला माना जाता है। 1992 से 2000 तक, उन्होंने ओलंपिक चैंपियनशिप की हैट्रिक जीती और 98.48 मीटर का विश्व रिकॉर्ड स्थापित किया। बारबोरा स्पॉटकोवा, एक हमवतन, इतिहास की बेहतरीन महिला भाला फेंकने वालों में से एक है, जिसने 2008 और 2012 में लगातार ओलंपिक चैंपियनशिप जीती और 72.28 मीटर के सर्वश्रेष्ठ के साथ महिलाओं का विश्व रिकॉर्ड अपने नाम किया।
इस बार तोक्यो ओलिंपिक में भारत ने 7 मेडल जीतते हुए इतिहास रच दिया है।भारोत्तोलक [ वेटलिफ्टर ] मीराबाई चानू ने भारत की तोक्यो ओलिंपिक में शुरुआत सिल्वर मेडल से कराई थी। इसका अंत जेवलिन थ्रो ऐथलीट नीरज ने गोल्ड जीत कर किया। नीरज भारतीय ऐथलेटिक इतिहास में पहला मेडल जीतने वाले खिलाड़ी बने। यह भारत का तोक्यो में 7वां मेडल भी है। इसके साथ ही भारत ने अपने लंदन ओलिंपिक-2012 के बेस्ट प्रदर्शन 6 मेडल को पीछे छोड़ दिया।खेलों में जीत-हार चलती रहती है लेकिन जब कोई नीरज चौपड़ा की तरह भाला फेंककर स्वर्ण जीतता है तो वो इतिहास बन जाता है। इस इतिहास को बनाने में चंद्रयान - 3 की तरह ही लंबा श्रम और साधना लगती है । सियासत का समर्थन भी शायद लगता ही है । यदि सियासत का समर्थन न हो तो मुमकिन है कि नीयरज टोक्यो तक पहुँच ही नहीं पाते। किसी नेता का बेटा उनकी जगह होता।
नीरज जिस जैवलिन [भाले ]का इस्तेमाल करते हैं, उसकी कीमत 1.10 लाख रुपये के आसपास होती है। स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने मुताबिक नीरज के पास ऐसे 4 से 5 जैवलिन [ भाले ] हैं, जिससे वो प्रैक्टिस करते हैं। इसके अलावा सरकार की ओर से 117 जैवलिन और जैवलिन थ्रो मशीन उपलब्ध कराए गए हैं, जिसपर करीब 74.28 लाख रुपये खर्च किए जाते हैं। शुरुआत में उन जैवलिन को खरीदने के लिए नीरज के परिवार को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। हालांकि अब उनकी ट्रेनिंग का खर्च साई उठाती है।ओलंपिक नियम के मुताबिक पुरुषों के लिए भाले की लंबाई 2.6 से 2.7 मीटर की होती है। वहीं उसका वजन 800 ग्राम रहता है। जबकि महिला एथलिट्स के लिए भाले ही लंबाई 2.2 से 2.3 मीटर होती है, जबकि उसका वजन 600 ग्राम होता है।
नीरज उसी हरियाणा का बेटा है जो आजकल हिंसा और साम्प्रदायिकता की आग में झुलस रहा है। 26 साल के नीरज ने कांवड़ यात्राओं में भाग लेने या सिर पर भगवा दुपट्टा बांधकर अपना यौवन बर्बाद करने के बजाय सारा ध्यान भाला फेंकने पर दिया और अंतत जो काम बजरंगी नहीं कर सके ,वो काम उसने करके दिखा दिया। नीरज हिन्दू है। गनीमत है कि हमारी सरकार और हमारे नेताओं ने स्वर्ण जीतने वाले नीरज को एक हिन्दू आइकॉन की तरह अपना ब्रांड एम्बेस्डर नहीं बनाया है।हमारी सरकारी पार्टी चुनाव जीतने के लिए नीरज चाहे तो लोकसभा का टिकिट भी दे सकती है।
हरियाणा के पानीपत जिला के खंडरा गांव में 24 दिसंबर 1997 को एक बेहद ही साधारण किसान परिवार में जन्में नीरज के पिता सतीश कुमार किसान है, और खेती- बाड़ी कर अपना जीवन यापन करते है।नीरज की माँ सरोज देवी गृहणी है, नीरज चोपड़ा के दो बहनें भी है। नीरज चोपड़ा ने अपनी पढाई डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ से पूरी की है। नीरज बचपन में कबड्डी और वॉलीबॉल खेलना पसंद करते थे, मात्र ग्यारह साल की उम्र में ही इनका वजन 80 किग्रा तक हो गया था। इनके परिवार के लोग इन्हे स्वस्थ रहने के लिए वजन कम करने के लिए बोला करते थे, इसके चलते ही नीरज ने शिवाजी स्टेडियम में व्यायाम करने के लिए जाने लगे।यहाँ पर इनकी मुलाकात वैसे लोगो से हुयी जो जेवलिन थ्रो की प्रैक्टिस किया करते थे, बाद में धीरे धीरे नीरज की रूचि इस खेल के प्रति बढ़ती गयी। बाद में नीरज ने जेवलिन थ्रो को ही अपना करियर मान प्रोफेशनल ट्रेनिंग लेना शुरू की और उस लक्ष्य को हासिल किया जो किसी भी इंसान का होता है ।
नीरज जैसे खिलाड़ी हमारे युवाओं के लिए प्रेरणा के स्रोत हो सकते है । सरकारों को नीरज की जीवनगाथा प्राथमिक -माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल की जा ना चाहिए। नीरज की आदमकद मूर्तियां बनाये जाने की जरूरत नहीं है। खिलाड़ियों को वैसे भी भगवान की तरह इस देश में पूजा जाता तो वे आज अमेरिका और चीन जैसे बड़े देशों की बराबरी में खड़े दिखाई देते। दुर्भाग्य ये है की हम मूर्ति पूजक देश तो हैं लेकिन हमारे यहां या तो देवताओं की मूर्तियां पूजी जाती हैं या नेताओं की । खिलाड़ियों और कलाकारों की नहीं। हम सियासत में फेंकने वालों पर फ़िदा होते हैं,भले ही वे किसी काम के न हों। हमारे यहां सियासत फेंकने वाले नीरजों से भरी पड़ी है ।
फेंकने की विश्व प्रतियोगिता में हमारे नेता भी नीरज की तरह स्वर्ण पदक हासिल कर सकते हैं। लेकिन नेताओं के फेंकने से न इतिहास बनता है और न देश का डंका बजता है। देश का डंका नीरज चौपड़ा जैसे निष्ठावान खिलाड़ियों की वजह से बजता है। लेकिन खिलाड़ियों द्वारा बजाए जाने वाले डंके ज्यादा देर तक सुनाई नहीं देते ,क्योंकि उनके साथ राज सत्ता नहीं होती।
आपको बता दूँ कि ओलम्पिक खेलों में हम यानि भारत को शामिल हुए 123 साल हो गए लेकिन पदक तालिका में आज भी भारत की स्थान 54 वां है। इसका कारण हमारी सियासत है। कल की सियासत भी और आज की सियासत भी । हम नेतागीरी के खेल के सामने किसी और खेल के खिलाड़ी को न प्रोत्साहित करते हैं और न उसे आगे बढ़ने देते है। खेलों में परिवारवाद नहीं चलता । ये व्यक्तिगत उपलब्धियों का क्षेत्र है ,लेकिन भारत में खेलों में भी परिवारवाद चलता है । खेल संगठनों के प्रमुख खिलाड़ी नहीं नेता या उनके बेटे होते है। कल भी होते थे ,आज भी होते हैं। जब तक ये सब होगा तब तक भारत में नीरज चौपड़ा जन्मेंगे तो लेकिन बहुत कम संख्या में।हमें अपनी खेल नीयतियाँ बदलना होंगी । बहरहाल हम भाला फेंकने वाले नीरज चौपड़ा की उपलब्धि पर गौरवान्वित अनुभव करते हैं। उतना ही गौरवान्वित जितना की इसरो के वैज्ञानिकों की उपलब्धि पर। सब देश के लिए काम कर रहे है। किसी का मकसद कुर्सी नहीं है। बधाई नीरज। जिओ और लगातार आगे बढ़ो।
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