मनुष्य के स्वाभिमान और मनुष्य के स्वयं जोड़े रिश्तों में विचित्र विरोधाभास होता है.स्वाभिमान या रिश्ता, दोनों में से व्यक्ति एक ही बचा सकता है.स्वाभिमान से समझौता न किया जाए तो रिश्ता हाथ से चला जाता है.. और रिश्ता बचा लिया तो स्वाभिमान की हत्या करनी पड़ती है..एक निश्चित अवधि के बाद रिश्ता व स्वाभिमान दोनों साथ नहीं चल पाते. व्यक्ति को एक का चुनाव करना ही पड़ता है..और चुनाव के उपरांत एक लम्बा अंतराल जी लेने के बाद व्यक्ति अपने निर्णय पर पछताता ही है चाहे वो जो भी पक्ष चुने.जिसने स्वाभिमान चुन कर रिश्ते व परिवार से हाथ धो दिए, उसके अंदर रह रह कर टीस उठती है कि "काश थोड़ा एडजस्ट कर लिया होता तो आज प्रेम व परिवार सब साथ होता"जिसने स्वाभिमान को रौंद कर अपना रिश्ता बचा लिया वो ताउम्र अपनी अंतरात्मा की अदालत में अपने ही हत्यारे के रूप आए दिन गर्दन झुकाए पेश होता रहता है. उसकी आत्मा पर स्थायी बोझ रहता है कि "काश थोड़ी हिम्मत की होती तो आज सिर उठा कर तो जी रहे होते.. भले ही अकेले होते."इस प्रकार ये पछतावा... ये रिग्रेट स्थायी है, अवश्यम्भावी है..ये पछतावा मानव जीवन  की ऐसी त्रासदी है जो शायद उम्र के साथ ही ख़त्म होती है... जीवन भर व्यक्ति को घुलना ही होता है.✒️🌹🌹

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