पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं का योगदान

पर्यावरण विमर्श में नारी संचेतना

डॉ कामिनी वर्मा
ज्ञानपुर 'भदोही' (उत्तर प्रदेश )


जीव और पर्यावरण का अन्योन्याश्रित संबंध सृष्टि  के आरम्भ से ही रहा है। पर्यावरण से इतर मानव जीवन की कल्पना भी नामुमकिन है। वह हर पल पर्यावरण से आवृत्त है । चतुर्दिक पर्यावरण से घिरा वह पर्यावरण से प्रभावित भी होता है । और अपने कार्य व्यवहार से उसपर अपना प्रभाव भी डालता है। दोनो एक दूसरे के निर्माता और विकृतकर्ता हैं। यह क्रम एक सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया के अंतर्गत चलता रहता है। जिसकी तरफ सामान्यतः हमारा ध्यान ही नही जाता है। परंतु जब अकाल , भूकम्प, अतिवृष्टि,अनावृष्टि, तूफान, भूस्खलन जैसी घटनाएं सामने आती है तब हमारा ध्यान पर्यावरण संरक्षण की ओर जाता है।
मानव जीवन को पुष्पित, पुल्लवित व आनंददायी बनाने के लिए प्रकृति ने उसे जन्म से ही निशुल्क उपहार में सभी संसाधन उपलब्ध कराए हैं! जब तक प्रकृति प्रदत्त  संसाधनों का सीमित मात्रा में उपभोग हुआ तब तक पर्यावरण संतुलित रहा। परंतु  औद्योगिक क्रांति, जनसंख्या ,विस्फोट, शहरीकरण और विकास के कारण मनुष्य द्वारा भूमि, जल, वायु और प्राकृतिक संसाधनों  का निर्ममता पूर्वक दोहन किये जाने के कारण प्राकृतिक असुंतलन का प्रभाव न सिर्फ उसपर पड़ रहा है बल्कि पेड़, पौधे , पशु पक्षी तथा अन्य जीवधारियों की कई प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर आ गयी है । औद्योगिक इकाईयों के अपशिष्ट पदार्थ, धूल, रासायनिक, द्रव्य, गैस, धुआं, रेडिशन, उर्वरकों ने जल और वायु को गंभीर रूप से प्रदूषित किया है। जिससे मनुष्य शारीरिक और मानसिक दोनो प्रकार के रोगों से ग्रसित हो रहा है। अतः आज के भौतिकवादी  समय मे हमारे सामने पर्यावरण में संतुलन स्थापित करना चिंतनीय विमर्श है। प्रकृति की क्षमता और भूसंपदा सीमित है !

वैदिक काल मे मनीषी प्रकृति के उपासक थे। गीता में कृष्ण  में स्वयं को सभी वृक्षों में 'अश्वत्थ ' कहते है। महाभारत में वृक्ष को पूज्य माना गया है।
 बौद्ध व जैन धर्मों में भी वृक्षों को पवित्र माना गया है। मध्यकाल में मुगलों द्वारा लगाए गए बिजौर, निशांत , चश्माशाही, शालीमार बाग व अशोक द्वारा सड़क के दोनो ओर छायादार व फलदार वृक्ष लगाना उसके धम्म कार्यों में था। तुलसी, पीपल, नीम,आंवला की पूजा आज भी की जाती है।  वास्तव में वृक्ष और वनस्पति
को धर्म से जोड़ने का उद्देश्य लोगों को उनके महत्व के प्रति सचेत करके उनका संरक्षण करना था  । वृक्ष निशुल्क ऑक्सीजन प्रदान करके मानवजीवन के लिए हानिकारक कार्बन डाइऑक्साइड  अवशोषण करके वातावरण में संतुलन स्थापित करते है और उनकी जड़े जमीन को कसकर पकड़े रहकर बाढ़ व भूस्खलन वाले क्षेत्रों में धरती को मजबूती प्रदान करती है।

पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की भूमिका सदैव प्रशंसनीय रही है। 1730 में राजस्थान के खेजड़ली गाँव की महिला अमृता देवी अपनी तीन बेटियों के साथ राजा के सिपाहियों द्वारा वृक्षों को काटने से बचाने के लिए वृक्षों से लिपट गयी और वृक्षों के साथ कटकर चारों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। इसके बाद 365 लोगो ने वृक्षों को बचाने के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। 1973 में उत्तर प्रदेश के चमौली  में चिपको आंदोलन के प्रणेता यद्द्पि सुंदरलाल बहुगुणा थे परंतु।  वृक्षों को कटने से बचाने में गौरा देवी और चमौली गाँव की महिलाओं का योगदान उल्लेखनीय रहा। उन्होंने 26 मार्च 1974 को जंगल को अपना मायका बताकर रेणी के वृक्षों को कटने से बचा लिया।  1987 में पर्यावरणविद वंदना शिवा के नेतृत्व में नवधान्या आन्दोलन महिलाओं द्वारा चलाया जा रहा है ।

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