महाप्राण निराला के अंतिम दिन
हिंदी कविता के आधुनिक युग के सबसे बड़े कवि निराला जी के जीवन के आख़िरी वर्षों में उनकी अस्वस्थता को लेकर कई तरह की कहानियां हैं।रूस के प्रसिद्ध हिंदी विद्वान ई.पी.चैलिशेव 1959 में निराला जी से मिलने आये थे।वे कवि सुमित्रानंदन पंत और गिरिजा कुमार माथुर के साथ उनके दर्शनों के लिए पहुंचे जिसके बारे में उन्होंने अपने संस्मरण में निम्न प्रसंग लिखा है।इस प्रसंग को पढ़कर जाना जा सकता है कि हमारी हिंदी के गौरव पुरुष निराला अपनी भयंकर अस्वस्थता की स्थिति में भी कितने शांत और ध्यानमग्न रहते थे।
" मैं अनेक वर्षों से भारत के इस महान कवि के काव्य का अध्ययन करता रहा हूँ और चिरकाल से मेरी यह उत्कट अभिलाषा थी कि मैं इस महान व्यक्ति के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त करूँ ,जिसे उसके देशवासी 'महाकवि' के नाम से पुकारते हैं।मुझे इलाहाबाद में एक ही दिन रहना था।अतः संध्या समय में अन्य सब कार्यों से छुट्टी पाकर नगर की इस प्राचीन बस्ती की ओर जा सका।हिंदी के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत,रामकुमार वर्मा और गिरिजा कुमार माथुर ने मुझे अपने साथ ले जाने का प्रस्ताव रखा।उन्होंने मुझे पहले ही बता दिया था कि आजकल कवि निराला अपनी भयंकर बीमारी के कारण रोगशय्या पर पड़े हैं।उनकी बीमारी पहले से अधिक विषम हो गयी है जिसके कारण वह कभी-कभी बेहोश हो जाते हैं।
देर तक पुराने प्रयाग की तंग, टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में भटकने के बाद अंत में हम एक छोटे से पुराने मकान पर पहुंचे।द्वार पर ही निराला साहित्य समाज के एक नवयुवक सदस्य ने हमारा स्वागत किया।वह हमें शय्याग्रस्त रुग्ण कवि के पास ले गया।हम कमरे में पहुंचे जो दीपक के मंद,पीले प्रकाश से आलोकित था।पास में एक छोटी सी तिपाई पर पीतल का एक जलकलश रखा था,बराबर में कुछ पुरानी कुर्सियां पड़ी थीं।दीवार के बराबर एक आलमारी में बीस या तीस के करीब पुस्तकें रखी थीं और एक नीची चौड़ी सी खाट कोने में बिछी थी।बस, ले-देकर कमरे में यही सीधा-सादा सामान।खाट पर अपने बड़े-बड़े हाथों को आड़े रखे और छाती पर सिर ढलकाये एक व्यक्ति बैठा था।यही महाकवि निराला थे।
कवि के चेहरे से परम शांति और क्लान्ति टपक रही थी।परंतु जैसे ही उन्होंने अपना उन्नत ललाट और सुंदर,सुघड़ , सघन केश-राशि युक्त ग्रीवा ऊपर उठाकर हमारी ओर देखा, हमारे ऊपर भयंकर रोग ग्रस्त व्यक्ति का पहला पड़ा प्रभाव सहसा विलुप्त हो गया।उनकी विस्मयपूर्ण और गंभीर अभिव्यक्तिपूर्ण बड़ी-बड़ी आंखें हमारे ऊपर जादू कर रही थीं और अपनी अदम्य शक्ति और तारुण्य से हमारे हृदय को आर-पार बेधती हुई हमें परास्त कर रही थीं।
हमने अभिवादन किया और उनकी शय्या के निकट पहुंचे।अभिवादन के उत्तर में उन्होंने सिर हिलाकर हमें कुर्सियों पर बैठने के लिए संकेत किया।हम सब बैठ गए।मैंने कवि निराला को बताया कि पिछले वर्षों में सोवियत संघ में उनका नाम विख्यात हो गया है और उनकी अनेक कृतियों के रूसी भाषा में अनुवाद अनेक संस्करणों में प्रकाशित हुए हैं तथा निकट भविष्य में उनकी चुनी हुई दो गद्य और दो पद्य की कृतियां पुनः प्रकाशित होने वाली हैं।मैंने उन्हें यह भी बताया कि उनके देशवासियों की तरह सोवियत संघ की जनता भी भारत के प्रगतिशील साहित्य में उनके योगदान का बड़ा आदर करती है।निराला के स्थिर चेहरे पर मुस्कुराहट की एक लहर दौड़ गयी।उनकी रुग्ण शय्या पर उनके मित्र और सहयोगी सुमित्रानंदन पंत  साथ ही बैठ गए।पंत ने उनके कंधों पर हाथ रख कर उनसे कहा कि 'कुछ सुनाओ '। 'मैं तो आजकल बहुत थोड़ा लिखता हूँ ' निराला ने उत्तर में कहा परंतु कुछ क्षण में ही उन्होंने अपने अर्धनिमीलित नयनों से मंद-मंद मधुर स्वर में अपना कविता पाठ शुरू किया।कविता के शब्दों से मैं समझ गया कि यह 'राम की शक्ति पूजा' में से है।मुझे गिरिजा कुमार माथुर ने बताया कि यह निराला जी की प्रियतम कविता है और वह इसका अपनी मित्र मंडली में प्रायः पाठ किया करते हैं।मैंने देखा कि इससे निराला जी बिल्कुल रूपान्तरित हो उठे।उन्होंने अभिमान से अपना उन्नत मस्तक उठाया और जब उन्होंने महान पौरुष और उदात्तता के शब्द उच्चारण किए,उनकी आंखें उत्साह से दीप्त हो उठीं।
निराला जी के इस कविता पाठ को सुनकर मेरी समझ में आया कि जीवन और संघर्ष की उनकी इच्छा को कोई शक्ति भंग और परास्त नहीं कर सकती।हमने निराला जी से विदा ली।भारतीय रीति के अनुसार उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और पुनः छाती पर सिर ढलका कर अपने विचारों में डूब गए।"



लेखक
डॉ प्रकाश चंद्र गिरी जी
एम एल के पीजी कालेज बलरामपुर में हिंदी विभाग के प्रमुख हैं

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