महेश अग्रहरी
👉 कुछ ऐसे थे देश के पहले शहीद खुदीराम बोस

खुदीराम बोस का जन्म बंगाल में मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में हुआ था। 3 दिसंबर 1889 को जन्मे बोस जब बहुत छोटे थे तभी उनके माता-पिता का निधन हो गया था। उनकी बड़ी बहन ने ही उनको पाला था। बंगाल विभाजन (1905 ) के बाद खुदीराम बोस स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे। सत्येन बोस के नेतृत्व में खुदीराम बोस ने अपना क्रांतिकारी जीवन शुरू किया था। हालांकि, वह अपने स्कूली दिनों से ही राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने लगे थे। वे जलसे-जलूसों में शामिल होकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते थे। नौवीं कक्षा के बाद ही उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और सिर पर कफन बांधकर जंग-ए-आजादी में कूद पड़े। बाद में वह रेवलूशन पार्टी के सदस्य बने।

उनका बचपन बस बीता ही था, उनके साथी जब पढ़ाई और परीक्षा के बारे में सोच रहे थे, वह क्रांति की मशाल रौशन कर रहे थे, जिस उम्र में लोग जिंदगी के हसीन ख्वाब बुनते हैं, वह वतन पर निसार होने का जज्बा लिए हाथ में गीता लेकर फांसी के फंदे की तरफ बढ़ गए और देश की आजादी के रास्ते में अपनी शहादत का दीप जलाया। यह थे अमर शहीद खुदीराम बोस। खुदीराम के बगावती तेवरों से घबराई अंग्रेज सरकार ने मात्र 18 वर्ष की आयु में उन्हें फांसी पर लटका दिया, लेकिन उनकी शहादत ऐसा कमाल कर गई कि देश में स्वतंत्रता संग्राम के शोले भड़क उठे। आज ही के दिन यानी 11 अगस्त, 1908 को ब्रिटिश सरकार ने सिर्फ 18 साल की उम्र में उन्हें फांसी पर लटका दिया था। आइये इस मौके पर उनसे जुड़ीं कुछ खास बातें जानते हैं...

🔷 ​परिचय

खुदीराम बोस का जन्म बंगाल में मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में हुआ था। 3 दिसंबर 1889 को जन्मे बोस जब बहुत छोटे थे तभी उनके माता-पिता का निधन हो गया था। उनकी बड़ी बहन ने ही उनको पाला था। बंगाल विभाजन (1905 ) के बाद खुदीराम बोस स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे। सत्येन बोस के नेतृत्व में खुदीराम बोस ने अपना क्रांतिकारी जीवन शुरू किया था। हालांकि, वह अपने स्कूली दिनों से ही राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने लगे थे। वे जलसे-जलूसों में शामिल होकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते थे। नौवीं कक्षा के बाद ही उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और सिर पर कफन बांधकर जंग-ए-आजादी में कूद पड़े। बाद में वह रेवलूशन पार्टी के सदस्य बने।

​🔶 पहली गिरफ्तारी

वह वंदेमातरम के पर्चे बांटते थे। पुलिस ने 28 फरवरी, सन 1906 को सोनार बंगला नामक एक इश्तहार बांटते हुए बोस को दबोच लिया। लेकिन बोस पुलिस के शिकंजे से भागने में सफल रहे। 16 मई, सन 1906 को एक बार फिर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, लेकिन उनकी आयु कम होने के कारण उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया था। 6 दिसंबर, 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर किए गए बम विस्फोट की घटना में भी बोस भी शामिल थे।

​🔷 किंग्सफर्ड की हत्या की योजना

कलकत्ता (अब कोलकाता) में किंग्सफर्ड चीफ प्रेजिडेंसी मैजिस्ट्रेट को बहुत सख्त और क्रूर अधिकारी माना जाता था। क्रांतिकारियों का मानना था कि वह अधिकारी देशभक्तों खासतौर पर क्रांतिकारियों को तंग करता था। क्रांतिकारियों ने उसकी हत्या का फैसला किया। युगांतर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेंद्र कुमार घोष ने घोषणा की कि किंग्सफोर्ड को मुजफ्फरपुर (बिहार) में ही मारा जाएगा। इस काम के लिए खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चंद को चुना गया।

​🔶 किंग्सफर्ड की जगह कैनेडी और उसकी बेटी की हत्या

ये दोनों क्रांतिकारी सूझबूझ वाले माने जाते थे। दोनों मुजफ्फरपुर पहुंचकर एक धर्मशाला में आठ दिन रहे। इस दौरान उन्होंने किंग्सफर्ड की दिनचर्या और गतिविधियों पर पूरी नजर रखी। उनके बंगले के पास ही क्लब था। अंग्रेजी अधिकारी और उनके परिवार के लोग शाम को वहां जाते थे। 30 अप्रैल, 1908 की शाम किंग्सफर्ड और उसकी पत्नी क्लब में पहुंचे। रात के साढे़ आठ बजे मिसेज कैनेडी और उसकी बेटी अपनी बग्घी में बैठकर क्लब से घर की तरफ आ रहे थे। उनकी बग्घी का रंग लाल था और वह बिल्कुल किंग्सफर्ड की बग्घी से मिलती-जुलती थी। खुदीराम बोस तथा उनके साथी ने किंग्सफर्ड की बग्घी समझकर उसपर बम फेंका, जिससे उसमें सवार मां-बेटी की मौत हो गई। वे दोनों यह सोचकर भाग निकले कि किंग्सफर्ड मारा गया है।


​🔷 फांसी की सजा

दोनों करीब 25 मील भागने के बाद एक रेलवे स्टेशन पर पहुंचे। बोस पर पुलिस को शक हो गया और पूसा रोड रेलवे स्टेशन (अब यह स्टेशन खुदीराम बोस के नाम पर है) पर उन्हें घेर लिया। अपने को घिरा देख प्रफुल्ल चंद ने खुद को गोली मार ली पर खुदीराम पकड़े गए। खुदीराम बोस पर हत्या का मुकदमा चला। उन्होंने अपने बयान में स्वीकार किया कि उन्होंने तो किंग्सफर्ड को मारने का प्रयास किया था। लेकिन, इस बात पर बहुत अफसोस है कि निर्दोष कैनेडी तथा उनकी बेटी गलती से मारे गए। यह मुकदमा केवल पांच दिन चला। 8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। 11 अगस्त, 1908 को उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया।

🔶 ​स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणा

मुजफ्फरपुर जेल में जिस मैजिस्ट्रेट ने उन्हें फांसी पर लटकाने का आदेश सुनाया था, उसने बाद में बताया कि खुदीराम बोस एक शेर के बच्चे की तरह निडर होकर फांसी के तख्ते की ओर बढ़े थे। शहादत के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे, जिसके किनारे पर ‘खुदीराम’ लिखा रहता था। स्कूल कालेजों में पढ़ने वाले लड़के इन धोतियों को पहनकर सीना तानकर आजादी के रास्ते पर चल निकले। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में जान न्योछावर करने वाले प्रथम सेनानी खुदीराम बोस माने जाते हैं।

खुदीराम बोस जी की जयंती पर कोटि कोटि नमन🙏🏻🇮🇳

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