लखनऊ : 22 दिसम्बर, 2025 : उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी ने कहा कि ‘वन्दे मातरम्’ एक गीत मात्र नहीं, बल्कि यह भारत के स्वतन्त्रता संग्राम की चेतना, उद्घोष और क्रान्तिकारियों के साहस का मन्त्र है। ‘वन्दे मातरम्’ का सम्मान हमारी भावनात्मक अभिव्यक्ति है। यह गीत संवैधानिक मूल्यों के प्रति हमारे राष्ट्रीय कर्तव्यों का बोध कराता है। यह राष्ट्र की आत्मा, संघर्ष और संकल्प का प्रतीक है। यह वर्ष राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ की वर्षगांठ का वर्ष है। यह भारत माता के प्रति राष्ट्रीय कर्तव्यों, सम्मान और सांस्कृतिक चेतना के पुनर्स्थापना का अवसर है।
मुख्यमंत्री जी आज यहां विधान सभा सत्र के अवसर पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व एवं मार्गदर्शन में राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ के 150 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में देश की राजधानी दिल्ली से प्रारम्भ हुए कार्यक्रमों की श्रृंखला में उत्तर प्रदेश विधान सभा, पहली विधान सभा है, जहां राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ पर चर्चा हो रही है। जब राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ का रजत जयन्ती वर्ष पूरा हो रहा था, तब देश में ब्रिटिश हुकूमत थी। जब राष्ट्रगीत की स्वर्ण जयन्ती मनाई गई, तब भी ब्रिटिश हुकूमत थी। आज ‘वन्दे मातरम्’ के 150 वर्ष पूरे हो रहे हैं। ‘वन्दे मातरम्’ की रचना ब्रिटिश हुकूमत के दमन और अत्याचार की पराकाष्ठा के समय की गयी थी। उस समय कानून के माध्यम से भारत की आवाज को रौंदा जा रहा था। उस समय देश की आजादी के स्वर को आगे बढ़ाने का मंच कांग्रेस थी।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने वर्ष 1896 में कांग्रेस अधिवेशन में ‘वन्दे मातरम्’ को अपना स्वर प्रदान किया था। उस समय यह सम्पूर्ण देश में आजादी का मंत्र बन गया था। प्रधानमंत्री जी के नेतृत्व में देश सम्पूर्ण विश्व में विकसित भारत/2047 की संकल्पना के साथ आगे बढ़ रहा है। आज का नया भारत राष्ट्रगीत के रचयिता श्री बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के सपनों को ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ के रूप में साकार करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि वर्ष 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में पूरे देश में स्वतन्त्रता सेनानियों ने एक साथ आगे बढ़ने का कार्य किया था। देश की स्वाधीनता के लिए अलग-अलग क्षेत्रों यथा-बैरकपुर में मंगल पाण्डेय, गोरखपुर में शहीद बन्धू सिंह, मेरठ में धन सिंह कोतवाल, झांसी में रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में भारत के स्वतन्त्रता सेनानी लड़ने के लिए उत्सुक थे। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की सफलता के पश्चात हताशा व निराशा के कालखण्ड में देश की सुप्त चेतना को जाग्रत करने के लिए श्री बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने आमजन की भावना को इस गीत के माध्यम से प्रस्तुत किया। औपनिवेशिक मानसिकता के प्रतिकार के रूप में ‘वन्दे मातरम्’ की रचना हमारे सामने आई।
‘वन्दे मातरम्’ मात्र एक काव्य नहीं था, अपितु यह मातृभूमि के प्रति आराधना तथा राष्ट्रवाद की वैदिक अभिव्यक्ति था। यह ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ का भाव था। पहली बार भारत माता एक भूभाग मात्र तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि यह प्रत्येक भारतीय की भावना बनी। पहली बार स्वाधीनता राजनीति नहीं, बल्कि प्रत्येक भारतीय की साधना बनी। श्री बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने इस गीत के माध्यम से राष्ट्र की सोई हुई आत्मा को जगाने का संकल्प लिया था।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि ‘सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम् शस्यश्यामलाम् मातरम्’ ने भारतीय मानस में चेतना का संचार किया। इस पंक्ति में भारत की प्रकृति, समृद्धि, सौन्दर्य और शक्ति एक साथ मूर्तिमान हो उठी। वर्ष 1905 में जब ब्रिटिश सरकार ने बंगाल का विभाजन किया, तब भारत की जनता ने प्रतिशोध के रूप में ‘वन्दे मातरम्’ के मन्त्र को हथियार के रूप में उठाया था। ‘वन्दे मातरम्’ प्रभातफेरी, सत्याग्रह व स्वाधीनता का गान बन गया। गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे भारत की आत्मा तथा महर्षि अरबिन्दो घोष ने इसे मंत्र कहा। यह ‘बंग-भंग’ आन्दोलन का प्राण बन गया। इस गीत की गूंज विद्यालयों, सभाओं, जुलूसों व हर उस स्थान पर सुनाई देती थी, जहां स्वतन्त्रता का स्वप्न था।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि फांसी के फंदे पर चढ़ते हुए क्रान्तिकारियों के अधरों पर ‘वन्दे मातरम्’ अन्तिम उच्चारण होता था। गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने जब इसे अपने स्वर में गाया, तो यह भारत की आध्यात्मिक अनुभूति बन गया। यह वही क्षण था, जब ‘वन्दे मातरम्’ काव्य से निकलकर आन्दोलन और राष्ट्रभक्ति की ऊर्जा बन गया। वर्ष 1907 में मैडम भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टटगार्ट में पहली बार तिरंगा झंडा फहराया। इस झण्डे पर ‘वन्दे मातरम्’ लिखा था। अगस्त, 1909 में जब श्री मदनलाल ढींगरा को इंग्लैंड में फांसी दी गई, तब फांसी पर चढ़ने के पहले उनके आखिरी शब्द ‘वन्दे मातरम्’ थे।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि वर्ष 1909 में पेरिस में रहने वाले भारतीय देशभक्तों ने जेनेवा में ‘वन्दे मातरम्’ नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। अक्टूबर, 1912 में केपटाउन में श्री गोपाल कृष्ण गोखले का ‘वन्दे मातरम्’ के नारे के साथ भव्य जुलूस के माध्यम से स्वागत किया गया। काकोरी के महानायक पं0 राम प्रसाद बिस्मिल की प्रतिबन्धित पुस्तक ‘क्रान्ति गीतांजलि’ में पहला गीत ‘वन्दे मातरम्’ ही था। महात्मा गांधी ने इसे शुद्धतम राष्ट्रीय वन्दना की संज्ञा देते हुए स्वीकार किया कि यह गीत राष्ट्रभक्ति की भावना से मंत्रमुग्ध करता है। वर्ष 1905 में दक्षिण अफ्रीका से प्रकाशित अपनी पत्रिका ‘इण्डियन ओपिनियन’ में गांधी जी ने लिखा कि यह हमारे राष्ट्रगीत के समान लगता है। गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा कि यह मन को एक सूत्र में बांधता है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा ने ‘वन्दे मातरम्’ को राष्ट्रगीत के रूप में मान्यता दी। इसी दिन आगरा और अवध प्रान्त को उत्तर प्रदेश के रूप में मान्यता मिली थी। इस रूप में ‘वन्दे मातरम्’ उत्तर प्रदेश के साथ ऐतिहासिक रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिए प्रदेश के सदन में ‘वन्दे मातरम्’ पर चर्चा अत्यन्त प्रासंगिक है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ के माध्यम से देश भर में एकता, राष्ट्रभक्ति और सांस्कृतिक गौरव का प्रसार हो रहा है। 01 अक्टूबर, 2025 को राष्ट्रीय समारोह का आयोजन किया गया। राज्यों में 07 नवम्बर, 2025 को विशेष कार्यक्रम आयोजित हुए। विद्यालयों में विशेष आयोजन किए गए। युवाओं के लिए विभिन्न प्रतियोगिताएं हुई। विश्वविद्यालयों में सेमिनार एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए गए। पूरे देश में राष्ट्रीय समारोह आयोजित किए गए।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि ‘वन्दे मातरम्’ पर हमला आज से नहीं हो रहा है। यह प्रवृत्ति स्वतंत्रता पूर्व से चली आ रही है। 06 छंदों में गाये जाने वाले राष्ट्रगीत को काट कर दो छंदों में सीमित कर दिया गया। यह किसी मजहबी मजबूरी का नतीजा तथा सत्ता बचाने के लिए राष्ट्र चेतना को गिरवी रखने की एक सुनियोजित साजिश थी। वर्ष 1896-97 के कांग्रेस अधिवेशन में गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘वन्दे मातरम्’ का गायन किया था। यह कांग्रेस का अधिवेशन था, जो उस समय देश की आजादी का सबसे बड़ा मंच था।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि वर्ष 1922 तक प्रत्येक कांग्रेस अधिवेशन की यही परम्परा रही। उस समय किसी भी प्रकार का फतवा एवं धार्मिक कोलाहल नहीं था। जब राजनीति ने मजहबी मुखौटा ओढ़ा, तभी से समस्या पैदा हुई। खिलाफत आन्दोलन के समय भी ‘वन्दे मातरम्’ सभी सभाओं में गाया जाता था। ‘भारत माता की जय’ और ‘वन्दे मातरम्’ के नारे देश की स्वाधीनता के समस्त मंचों से गूंजते थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेता इसका समर्थन करते थे। तब किसी ने इसे इस्लाम विरोधी नहीं कहा। बंगाल कांग्रेस के नेता ए0 रसूल ने कहा कि ‘वन्दे मातरम्’ को इस्लाम विरोधी बताने का कोई आधार नहीं है। उन्होंने इसे मातृभूमि के सम्मान का गीत माना।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि वर्ष 1923 में कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता कर रहे मोहम्मद अली जौहर ने सबसे पहले ‘वन्दे मातरम्’ का विरोध किया। यह विरोध किसी धर्म से नहीं, बल्कि खिलाफत की राजनीति से निकला था। अधिवेशन में जब पं0 विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने पूरा गीत गाया, तो मोहम्मद अली जौहर मंच छोड़कर चले गए। यह मंच छोड़ना उनका व्यक्तिगत निर्णय था। मोहम्मद अली जौहर की इस राजनीतिक आपत्ति के बाद एक समिति बनाई गई। समिति ने वर्ष 1937 में फैसला किया कि केवल दो पद गाए जाएं, जो अनिवार्य न हों। यह धार्मिक सहिष्णुता नहीं, बल्कि कांग्रेस का राष्ट्रीय आत्मसमर्पण था।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि कांग्रेस में रफी अहमद किदवई जैसे नेता भी थे, जो यह मानते थे कि ‘वन्दे मातरम्’ स्वतंत्रता संग्राम का साझा प्रतीक है। कांग्रेस नेतृत्व ने ऐसे नेताओं को आगे नहीं बढ़ाया, क्योंकि तुष्टिकरण की राजनीति में राष्ट्रवादी स्पष्टता की कोई जगह नहीं थी। बाद में इस मुद्दे को खुलकर मोहम्मद अली जिन्ना ने बढ़ावा दिया। जब तक जिन्ना कांग्रेस में थे, ‘वन्दे मातरम्’ पर कोई निर्णायक विवाद नहीं था। कांग्रेस छोड़ते ही जिन्ना ने इसे मुस्लिम लीग का राजनीतिक औजार बनाया। इस गीत को जानबूझकर सांप्रदायिक रंग दिया। गीत वही रहा लेकिन एजेण्डा बदल गया।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि 15 अक्टूबर, 1937 को मोहम्मद अली जिन्ना ने लखनऊ से ‘वन्दे मातरम्’ के विरुद्ध नारा बुलन्द किया। उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष पं0 जवाहरलाल नेहरू थे। 20 अक्टूबर, 1937 को पं0 नेहरू ने सुभाष चन्द्र बोस को पत्र लिखा और कहा कि इस गीत की पृष्ठभूमि मुसलमानों को असहज कर रही है। 26 अक्टूबर, 1937 को कांग्रेस ने इस गीत के अंश को हटाने का निर्णय लिया। इसे सद्भाव कहा गया, परन्तु वास्तव में यह तुष्टिकरण की पहली अधिकारिक मिसाल थी। देशभक्तोंं ने इसके विरोध में प्रभात फेरियां निकाली।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि 17 मार्च, 1938 को जिन्ना ने कहा कि गीत को पूरी तरह बदला जाए। कांग्रेस प्रतिकार के बजाय मौन रही। परिणामस्वरुप, मुस्लिम लीग का दुस्साहस बढ़ता गया। अलगाववाद की धार तेज होती गयी। सांस्कृतिक प्रतीक पर पहला समझौता हुआ। इसने देश के दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन की नींव डाली। भारत के विभाजन की दुर्भाग्यपूर्ण नींव वहीं से पड़ी, जब हमने तुष्टिकरण के सामने राष्ट्रभक्ति को पूरी तरह कैद करने का दुस्साहस किया। ‘वन्दे मातरम्’ उस राजनीति का माध्यम बना कारण नहीं। कांग्रेस ने कभी स्पष्ट रुख नहीं अपनाया। पूरे घटनाक्रम में तत्कालीन कांग्रेस की भूमिका सबसे ज्यादा आपत्तिजनक रही। विवाद से बचने के लिए राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ बार-बार सौदेबाजी की गई।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि यही तुष्टिकरण की नीति आज तक की राजनीति में दिखाई देती है। ‘वन्दे मातरम्’ पर समझौता भारत विभाजन की मनोवैज्ञानिक भूमिका बनाने की दिशा में एक षड़यन्त्र था। 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा द्वारा जिस खण्डित ‘वन्दे मातरम्’ को मान्यता दी गई, वह कांग्रेस की उसी तुष्टिकरण नीति का परिणाम था। राष्ट्र ने गीत को अपनाया, लेकिन कांग्रेस पहले ही उसे काट चुकी थी।
तुष्टिकरण की नीति ने अलगाववाद को ताकत दी और अन्ततः देश का दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन हुआ। ‘वन्दे मातरम्’ धरती माता की वन्दना है और भारतीय आत्मा की पुकार है। इसके साथ किया गया समझौता एक गीत का अपमान ही नहीं, बल्कि यह भारत के राष्ट्रबोध का अपमान था। आज भी कुछ लोग उसी विभाजनकारी पौधे को सींच रहे हैं। वही जहर फिर से देश में घोलने का प्रयास हो रहा है। उस समय राष्ट्रगीत को निशाना बनाया गया, आज राष्ट्र भाव को इसका निशाना बनाने का प्रयास हो रहा है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि ‘वन्दे मातरम्’ का विरोध न तो धार्मिक था और न ही आस्थाजन्य। यह शुद्ध रूप से एक राजनीतिक विरोध था और अब भी राजनीतिक विरोध ही है। यह कुछ राजनीतिक दलों की तुष्टिकरण की नीति, सत्तालोलुपता और वैचारिक कायरता का दुष्परिणाम है। इसकी कीमत देश ने चुकाई है और इसकी गूंज आज भी हमें सुनाई देती है। ‘वन्दे मातरम्’ पर यह चर्चा इसलिए आवश्यक है, क्योंकि इतिहास केवल तथ्य ही नहीं, बल्कि एक चेतावनी भी है। नई पीढ़ी को सच्चाई जानने का अधिकार होना चाहिए। राष्ट्रगीत केवल एक गीत नहीं, बल्कि भारतवासियों के लिए एक संस्कार है। ‘वन्दे मातरम्’ किसी मत, पंथ या सम्प्रदाय का गीत नहीं है। यह सम्पूर्ण भारत की आत्मा का स्वर है। इसमें जिस मातृभूमि की वन्दना है, उसी की मातृभूमि की कृपा से हम सभी का अस्तित्व है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि जो लोग जाने-अनजाने में आज राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ का विरोध कर रहे हैं, उन्हें देशवासियों से माफी मांगनी चाहिए। ‘वन्दे मातरम्’ हर भारतीय को एक नई दिशा देता है। हम यह मानते हैं कि ‘वन्दे मातरम्’ का अर्थ केवल मातृभूमि को प्रणाम करना ही नहीं, बल्कि यह वचन देना है कि हम उसकी रक्षा करेंगे, उसे समृद्ध और गौरवान्वित बनाएंगे। जब कोई किसान अपनी भूमि को उपजाऊ बनाता है, जब सैनिक सीमाओं पर डटकर देश की रक्षा करता है, जब एक आदर्श शिक्षक अपने छात्र को संस्कारित करता है और जब भारत का युवा अपने नवाचार से देश का नाम रोशन करता है, तब ‘वन्दे मातरम्’ अपने सार्थक रूप में दिखाई देता है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि वर्तमान की युवा पीढ़ी ‘वन्दे मातरम्’ गीत के मूल भाव को अपने जीवन का हिस्सा बनाए, इस दृष्टि से यह आवश्यक है कि सदन इस पर चर्चा करे। इन 150 वर्षों में दमन से मुक्ति तक, गुलामी से गरिमा तक, विभाजन से विकास तक भारत ने एक लम्बी यात्रा तय की है। आज समय है, अतीत में की गयी गलती सुधारने का, तुष्टिकरण की भूलों से सीखने का और राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ की गरिमा को पुनः स्थापित करने का। ‘वन्दे मातरम्’ श्री बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के आनन्द मठ उपन्यास का अमर गीत है। सदन के सभी सदस्यों को इसका अध्ययन अवश्य करना चाहिए कि कैसे इस गीत ने मंत्र के रूप में भारत के अन्दर एक नई चेतना का संचार करने में सफलता प्राप्त की और अत्याचार तथा शोषण के खिलाफ देश की सुप्त चेतना को जागृत किया। आनन्द मठ उपन्यास में तत्कालीन बंगाल की त्रासदी का उल्लेख है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि ‘वन्दे मातरम्’ केवल अतीत की स्मृति न रहे, बल्कि हम सभी के लिए भविष्य का एक संकल्प भी बने। यह संकल्प एक नए, श्रेष्ठ, आत्मनिर्भर और विकसित भारत का है। इस संकल्प के साथ हम सभी सहभागी बनें। इस संकल्प के साथ जुड़कर हम देश की आजादी के लिए अपना बलिदान देने वाले महान क्रान्तिकारियों और महापुरुषों के संकल्पों को आगे बढ़ाने का काम करें।
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