प्रयागराज के तीर्थ पुरोहितों यानी पंडों को अंग्रेजों ने भी झंडे के निशान दिए थे। अंग्रेजों ने 'पांच सिपाही' और 'बादशाही' झंडे का निशान दिया था। एक तीर्थ पुरोहित को यूनियन जैक झंडे का निशान दिया था। आजादी के बाद यूनियन जैक निशान तिरंगे में बदल गया।

इसी निशान के माध्‍यम से यजमान अपने पुरोहित के पास पहुंचते हैं

प्राचीन काल के राजा और बड़े यजमान अपने तीर्थ पुरोहित नियुक्त करते थे। समय के साथ पंडों का कुनबा बढ़ता गया और इनके निशान की संख्या में बढ़ोत्तरी होती गई। हालांकि कुछ परिवार अलग होने के बाद भी पूर्वजों के दिए गए निशान पर काम कर रहे हैं। सूरज, घोड़ा, हाथी, चंद्रमा, गाय आदि निशान प्राचीन समय के हैं। स्कूटर, कार, साइकिल, कंप्यूटर आदि निशान पिछले कुछ दशकों से अस्तित्व में आए हैं। इन्हीं निशान से तीर्थ पुरोहितों की पहचान होती है। तीर्थ यात्री प्रयाग आने के बाद इन्हीं निशान के माध्यम से पंडों के पास या उनके शिविर में पहुंचते हैं। शिविर के द्वार पर काफी ऊंचाई पर लगे झंडे में यह निशान बने रहते हैं। जिन पर प्रतीक अंकित रहता है। दूर से ही यह चिह्न दिखाई देता है। इसी से लोग शिविर में पहुंच जाते हैं।

प्रयागवाल सभा के पूर्व मंत्री मधु चकहा बताते हैं कि प्राचीन काल में राजा महाराजों के साथ बड़े जमींदार तीर्थ पुरोहितों को निशान देते थे। खास बात यह है कि अंग्रेजों ने भी प्रयाग के तीर्थ पुरोहितों को पांच सिपाही और बादशाही झंडा निशान दिया था। उस समय अल्मोड़ा के कमिश्नर ने तीर्थ पुरोहित शीतल प्रसाद तिवारी को पांच सिपाही का निशान दिया था। दारागंज में पीली कोठी पर यह परिवार रहता है। वर्तमान में नरोत्तम तिवारी एवं कल्लू तिवारी इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।

अंग्रेजों ने यूनियन जैक झंडा का निशान दुर्गा प्रसाद शर्मा के पूर्वजों को दिया था। स्वतंत्रता मिलने के बाद यह झंडा तिरंगे में बदल गया। चकहा बताते हैं कि विभिन्न प्रांतों के प्रांतपति तीर्थ पुरोहित हुआ करते थे। तब वहां के राजा, नरेश, जमींदार या संपन्न लोग किसी को अपना तीर्थ पुरोहित नियुक्त कर देते थे। फिर उसे अपना निशान देकर तीर्थ स्थानों में भेज देते थे। यह लोग तीर्थ स्थानों में अपनी जगह खरीद कर इन तीर्थ पुरोहितों को वहीं बसा देते थे। फिर उस इलाके के लोग उसी निशान के तीर्थ पुरोहित के शिविर में जाते थे। इसी आधार पर पंडों की बिरादरी प्रांत एवं शहरों के हिसाब से बंटी है। क्षेत्रवार भी तीर्थ पुरोहितों के यजमान बंटे हुए हैं। आज भी लोग उसी आधार पर तीर्थ स्थलों पर जाते हैं और पूजन अर्चन के लिए अपने पंडों के पास पहुंचते हैं। हालांकि तीर्थ पुरोहितों के परिवार की संख्या में अब बढ़ोत्तरी हो गई है पर वंश परंपरा के अनुसार चला आ रहा प्रतीक चिह्न एक ही है। कुछ ने आधुनिक प्रतीकों काे अपना निशान बना लिया है


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